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मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

कर्तव्यपालन की सज़ा

जब जल्दी हो तो सारे काम भी उल्टे होते हैं . कभी हाथ से दूध गिरता है तो कभी बर्तन तो कभी सब्जी . हद हो गयी है आज  तो लगता है अपांटमेंट कैंसल ही करनी पड़ेगी. कितनी मुश्किल से तो एक महीने बाद टाइम मिला था लगता है आज वो भी हाथ  से निकल  जायेगा. चलो कोशिश करती हूँ जल्दी से जाने की .ये सब सोचते हुये मै जल्दी जल्दी काम निबटाने लगी।


फिर जल्दी से काम निपटाकर मैं हॉस्पिटल के लिए निकल गयी मगर रास्ते में ट्रैफ़िक इतना कि लगा आज तो जाना ही बेकार था मगर अब कुछ नहीं हो सकता था क्यूँकि इतना आगे आ चुकी थी कि वापस जा नहीं सकती थी तो सोचा चलो चलते है . एक बार कोशिश करुँगी डॉक्टर को दिखाने की . किसी तरह जब वहाँ पहुची तो देखा बहुत से मरीज बैठे थे तो सांस में सांस आई कि चलो नंबर तो मिल ही जायेगा बेशक आखिर का मिले और आखिर का ही मिला . अब डेढ़ घंटे से पहले तो नंबर आने से रहा इसलिए एक साइड में बैठकर मैगजीन पढने लगी ।


थोड़ी देर बाद यूँ लगा जैसे कोई दो आँखें मुझे घूर रही हैं आँख उठाकर देखा तो सामने एक अर्धविक्षिप्त सी अवस्था में एक औरत बैठी थी और कभी- कभी मुझे देख लेती थी .उसके देखने के ढंग से ही बदन में झुरझुरी -सी आ रही थी  इसलिए उसे देखकर अन्दर ही अन्दर थोडा डर भी गयी मैं. फिर अपने को मैगजीन में वयस्त कर दिया मगर थोड़ी देर में वो औरत अपनी जगह से उठी और मेरे पास आकर बैठ गयी तो मैं सतर्क हो गयी. ना जाने कौन है , क्या मकसद है  , किस इरादे से मेरे पास आकर बैठी है, दिमाग अपनी रफ़्तार से दौड़ने लगा मगर किसी पर जाहिर नहीं होने दिया. मगर मैं सावधान होकर बैठ गयी . तभी वो अचानक बोली और मुझे अपना परिचय दिया और मुझसे मेरे बारे में पूछने लगी क्यूँकि उसे मैं जानती नहीं थी इसलिए सोच- सोच कर ही बातों क जवाब दिए . फिर बातों-बातों में उसने मुझसे अपनी थोड़ी जान -पहचान भी निकाल ली. अब मैं पहले से थोड़ी सहज हो गयी थी.


फिर मैंने उससे पूछा कि उसे क्या हुआ है तो उसके साथ उसकी माँ आई हुई थी वो बोलीं की इसे डिप्रैशन है और ये २-२ गोलियां नींद की खाती है फिर भी इसे नींद नहीं आती और काम पर भी जाना होता है तो स्कूटर भी चलती है . ये सुनकर मैं तो दंग ही रह गयी कि ऐसा इन्सान कैसे अपने आप को संभालता होगा और फिर बातों में जो पता चला उससे तो मेरा दिल ही दहल गया.


उसका नाम नमिता था . एक बेटा और एक बेटी दो उसके बच्चे थे . उसका बेटा कोटा में इंजीनियरिंग के एंट्रेंस की तैयारी कर रहा था और बेटी भी अभी 11वीं में थी . पति का अपना काम था तथा वो खुद किसी विश्वविध्यालय में अध्यापिका थी .पूरा परिवार भी सही पढ़ा -लिखा था फिर मुश्किल क्या थी अभी मैं ये सोच ही रही थी कि नमिता ने कहा ,"रोज़ी (मेरा नाम ) , तुम सोच रही होंगी कि मेरे साथ ऐसा क्या हुआ जो आज मेरी ये हालत है, तो सुनो --------मुश्किल तब शुरू हुई जब मेरे बेटे का ऐडमिशन कोटा में हो गया और मुझे उसके पास जाकर २-३ महीने रहना पड़ता था . उसके खाने पीने का ध्यान रखना पड़ता था . घर पर मेरे पति और बिटिया होते थे और मुझे बेटे के भविष्य के लिए जाना पड़ता था .


एक औरत को  घर- परिवार, बच्चों और नौकरी सब देखना होता है . पति तो सिर्फ अपने काम पर ही लगे रहना जानते हैं मगर मुझ अकेली को सब देखना पड़ता । हर छोटी बडी चिन्तायें सब मेरी जिम्मेदारी होती थीं। कैसे घर और नौकरी के बीच तालमेल स्थापित कर रही थी ये सिर्फ़ मै ही जानती थी मगर फिर भी एक सुकून था कि बच्चों का भविष्य बन जायेगा और इसी बीच मेरे पति के अपनी सेक्रेटरी से सम्बन्ध बन गए . शुरू में तो मुझे पता ही नहीं चला  मगर ऐसी बातें कब तक छुपी रहती हैं किसी तरह ये बात मेरे कान में भी पड़ी तो मैंने अपनी तरफ से हर भरसक प्रयत्न किया . उन्हें समझाने की कोशिश की मगर जब बात खुल गयी तो वो खुले आम बेशर्मी पर उतर आये और उसे घर लाने लगे जिसका मेरी जवान होती बेटी पर भी असर पड़ने लगा . हमारे झगडे बढ़ने लगे. उन्हें कभी प्यार और कभी लड़कर कितना समझाया , बच्चों का हवाला दिया मगर उन पर तो इश्क का भूत सवार हो गया था इसलिए मारपीट तक की नौबत आने लगी . घर में हर वक्त क्लेश रहने लगा तो एक दिन उसके साथ जाकर रहने लगे और इस सदमे ने तो जैसे मेरे को भीतर तक झंझोड़ दिया  और मैं पागलपन की हद तक पहुँच गयी . सबको मारने , पीटने और काटने लगी . घर के हालात अब किसी से छुपे नहीं थे . बदनामी ने घर से बाहर निकलना दूभर कर दिया था बच्चे हर वक्त डरे- सहमे रहने लगे यहाँ तक कि बेटे को कोटा में पता चला तो उसकी पढाई पर भी असर पड़ने लगा .घर, घर ना रह नरक बन गया . जब हालात इतने बिगड़ गए तब मेरे घरवालों ने उन्हें बच्चों का वास्ता दिया , यहाँ तक की जात बिरादरी से भी बाहर करने की धमकी दी तब भी नहीं माने तो उन्हें कोर्ट ले जाने की धमकी दी तब जाकर वो वापस आये और जब मेरी ये हालत देखी तो अपने पर पश्चाताप भी हुआ क्यूँकि मेरी इस हालत के लिए वो ही तो जिम्मेदार थे . सिर्फ क्षणिक जूनून के लिए आज उन्होंने मेरा ये हाल कर दिया था कि मैं किसी को पहचान भी नहीं पाती थी इस ग्लानि ने उन्हें उस लड़की से सारे सम्बन्ध तोड़ने पर मजबूर कर दिया और उन्होंने मुझसे वादा किया कि वो अब उससे कोई सम्बन्ध नहीं रखेंगे .........ऐसा वो कहते हैं मगर मुझे नहीं लगता , मुझे उन पर अब विश्वास नहीं रहा .उनके आने के बाद मेरी माँ और उन्होंने मिलकर मेरी देखभाल की अच्छे से अच्छे डॉक्टर को दिखाया और मेरा इलाज कराया तब जाकर आज मैं कुछ सही हुई हूँ या कहो जैसी अब हूँ वो तुम्हारे सामने हूँ .  अब तुम बताओ रोज़ी क्या ऐसे इन्सान पर विश्वास किया जा सकता है ?क्या वो दोबारा मुझे छोड़कर नहीं जायेगा ?क्या फिर उसके कदम नहीं बहकेंगे, इस बात की क्या गारंटी है ?क्या अगर उसकी जगह मैं होती तो भी क्या वो मुझे अपनाता? अब तो मैं उसके साथ एक कमरे में रहना भी पसंद नहीं करती तो सम्बन्ध पहले जैसे कायम होना तो दूर की बात है . मेरा विश्वास चकनाचूर हो चुका है . इसमें बताओ मेरी क्या गलती है? क्या मैं एक अच्छी पत्नी नहीं रही या अच्छी माँ नहीं बन सकी? कौन सा कर्त्तव्य ऐसा है जो मैंने ढंग से नहीं निभाया?क्या बच्चों के प्रति , अपने परिवार के प्रति कर्त्तव्य निभाने की एक औरत को कभी किसी ने इतनी बड़ी सजा दी होगी?कहीं देखा है तुमने? एक कर्तव्यनिष्ठ,सत्चरित्र, सुगढ़ औरत की ऐसी दुर्दशा सिर्फ अपने कर्तव्यपालन के लिए?


उसकी बातें सुनकर मैं सुन्न हो गयी समझ नहीं आया कि उसे क्या कहूं और क्या समझाऊँ ? ऐसे हालात किसी को भी मानसिक रूप से तोड़ने के लिए काफी होते हैं . क्यूँकि मैं कभी मनोविज्ञान की छात्रा रही थी इसलिए अपनी तरफ से उसे काफी कुछ समझाया तो वो थोडा रीलेक्स लगने लगी मगर मैं जब तक घर आई एक प्रश्नचिन्ह बन गयी थी कि  एक औरत क्या सिर्फ औरत के आगे कुछ नहीं है ? पुरुष के लिए औरत क्या जिस्म से आगे कुछ नहीं है वो क्या इतना संवेदनहीन हो सकता है कि हवस के आगे उसे घर- परिवार कुछ दिखाई नहीं देता? क्या हो अगर औरत भी अपनी वासनापूर्ति के लिए ऐसे ही कदम उठाने लगे , वो भी अपनी मर्यादा भंग करने लगे? क्या एक औरत को उतनी जरूरत नहीं होती जितनी कि एक पुरुष को ? फिर कैसे एक पुरुष इतनी जल्दी अपनी सीमाएं तोड़ बैठता है ?मैं इन प्रश्नों के जाल में उलझ कर रह गयी और यही सोचती रही कि रोज़ी ने ये सब कैसे सहन किया होगा जब मैं इतनी व्यथित हो गयी हूँ .


मैं आज भी इन प्रश्नों के हल खोज रही हूँ मगर जवाब नहीं मिल रहा अगर किसी को मिले तो जरूर बताइयेगा.



शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

नैसर्गिक संगीत कभी सुना है

हवा के बहने से
पत्ते के हिलने से
पैदा होता नैसर्गिक
संगीत कभी सुना है
सुनना ज़रा
कल- कल करती
नदी के बहने का
मधुर संगीत
फूल की पंखुड़ी
पर गिरती ओस की
बूँद का अनुपम संगीत
तितली की पंखुड़ी
के हिलने से पैदा होता
मनमोहक संगीत
सुना है कभी
सुनना कभी
कण -कण में व्याप्त
दिव्य संगीत की धुन
बिना आवाज़ का 
बहता प्रकृति का
अनुपम संगीत
 रोम- रोम 
को महका देगा
ह्रदय को 
प्रफुल्लित 
उल्लसित कर देगा
ब्रह्मनाद का आभास
करा जायेगा
तुझे तुझमे व्याप्त
ब्रह्म से मिला जायेगा
अनहद नाद बजा जायेगा

रविवार, 19 दिसंबर 2010

मैं प्रेम दीवानी मीरा बन जाऊँ………………

मैं प्रेम दीवानी मीरा बन जाऊँ
और तुम राधा के दास
एक दूजे की पीर समझ लें
फिर दोनों के प्राण
ओ श्याम तब जानोगे तुम
दिल की लगी की प्यास
मेरे हिय की जलन है ऐसी
जिसमे जल जाएँ दोनों जहान
इक बार तुम भी जलकर देखो
इस जलन में मोहन प्राण आधार
तब जानोगे कैसी होती है
पिया मिलन की प्यास
जल बिन जैसे  मीन प्यासी
तडफत हूँ दिन राति
तुम भी तड़प के देखो प्यारे
फिर जानोगे प्रेम की धार
तुम निर्मोही निःसंग बने हो
कैसे तुमको समझाऊँ
इक बार राधे चरण में आओ
प्रीत की रीत उनसे निभाओ
तुम भी आग पर चलकर देखो
प्रिय मिलन को तरस के देखो
फिर जानोगे कैसी होती
ये ह्रदय की संत्रास
तुम भी प्रेम दीवाने बनकर देखो
राधे के चरण पकड़कर देखो
तब जानोगे मेरे दिल की
कैसे टूटे आस
प्रेम दीवानी वन वन भटकूँ
फिर भी ना पाऊँ ठौर तुम्हारा
एक बार आजाओ गले लगा जाओ
पूरी हो जाए हर आस
मैं प्रेम दीवानी मीरा बन जाऊं
तुम राधा के दास
हिलमिल दिल व्यथा सुनाएं
एक दूजे को हम समझाएं
पूरण हो जाए हर आस
राधे दीवाने तुम बन जाओ
मोहन दीवानी मैं बन जाऊँ
गलबहियां देकर हिलमिल नाचें
इक दूजे में खुद को समा लें
मैं तेरी तुम मेरे बन जाओ
पूरण हो जाये हर आस
श्याम चरण में चित को लगा के
प्रेम रंग में खुद को रंग के
श्याम पिया की छवि बन जाऊँ
श्याम श्याम की रटना लगाऊं
और ना रहे कोई आस जिया में
श्याम की सजनी मैं बन जाऊं
पूरण कर लूं हर आस
प्यारे जू के चरण शरण में
कर दूं तन मन अर्पण
प्रेम प्रेम की रटना लगाऊं
हो जाऊँ प्रेम रस अंग संग
रसो वयी सः मैं बन जाऊँ
पूरण हो जाए हर आस 
मैं प्रेम दीवानी मीरा बन जाऊँ
और तुम राधा के दास

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

शायद अभी भटकन बाकी है ...................

ये दिल के गली कूचे
भर चुके हैं तेरे
प्रेम के गुलाबों से
अब उमड़ते भावों
की गागर 
छलक छलक
जाती है
वेदना की अधिकता
अश्रु सिन्धु में बही
जाती है
कौन हो तुम ?
कहाँ हो तुम?
कैसे हो  तुम?
नहीं जानती
मगर फिर भी
ह्रदय कुञ्ज में
तुम्हारे प्रेम का
बीज रोपित हो चुका है
मेरे अश्रुओं में
बहने वाले
एक अक्स तो
अपना दिखा जाओ
तुम हो कहीं
जानती हूँ
मगर पाने की चाह
अपनी प्रबलता में
सारे बांध तोड़ देती है
मुझमे समाहित तुम
मगर फिर भी
विलगता का अहसास
वेदनाओं के ज्वार में
उफन जाता है
शायद अभी
तड़प अपने
चरम पर नहीं

पहुंची  है
शायद अभी
भटकन बाकी है...................

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

बस गुजर रही है .......... उसके साथ ............. उसके बिन

ना वो मिला 
ना उसे मिलने की 
हसरत हमसे
बस गुजर रही है
उसके साथ
उसके बिन 


वो अपना बनाता भी नहीं 
पास बुलाता भी नहीं
छः अंगुल की दूरी 
मिटाता भी नहीं
बस गुजर रही है
उसके साथ
उसके बिन


वो सपने में आता भी नहीं
ख्वाब दिखाता भी नहीं
बाँसुरिया सुनाता भी नहीं
रास रचाता भी नहीं
मोहिनी मूरत दिखाता भी नहीं
बस गुजर रही है 
उसके साथ
उसके बिन
  
कोई चाहत परवान
चढ़ाता भी नहीं
विरह वेदना 
मिटाता भी नहीं
एक बार दरस 
दिखाता भी नहीं
ह्रदय फटाता भी नहीं
मरना सिखाता भी नहीं
बस गुजर रही है
उसके साथ 
उसके बिन

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

आहों मे असर हो तो……………

आहों मे असर हो तो
खुद दौडे चले आते हैं
फिर बाँह पकड कर के
सीने से लगाते हैं


याद मे जब उनकी
हम नीर बहाते हैं
खुद वो भी तडपते हैं
और हमे भी तडपाते हैं

कभी अपना बनाते हैं
कभी मेरे बन जाते हैं
ये आँख मिचौलियाँ 

श्याम मुझसे निभाते हैं
आहों में असर हो तो
खुद दौड़े आते हैं 

कभी छुप छुप जाते हैं
कभी दरस दिखाते हैं
श्याम झलक को
जब नैना तरसते हैं
वो बन के पपीहा मेरे
मन मे बस जाते हैं

आहों में असर हो तो
खुद दौड़े चले आते हैं 

कभी गोपी बन जाते हैं
कभी रास रचाते हैं
खुद भी नाचते हैं
संग मुझे भी नचाते हैं
ये प्रेम के रसरंग 
श्याम प्रेम से निभाते हैं
आहों मे असर हो तो
खुद दौडे आते हैं

कभी करुणा बरसाते हैं 
और प्रीत बढ़ाते हैं 
ये प्रेम की पींगें श्याम
रुक रुक कर बढ़ाते हैं 
आत्मदीप जलाकर के 
हृदयतम भी मिटाते हैं
आहों में असर हो तो
खुद दौड़े चले आते हैं

रविवार, 21 नवंबर 2010

खामोशी की डगर और उम्मीद की किरण …………………………आखिरी किस्त

प्रेम ने कब प्रेम के बदले प्रेम चाहा है वो तो प्रेमी की ख़ुशी में ही खुश रहता है ..........उसके अधरों की एक मुस्कान के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए तैयार रहता है .........जब उसका प्रेम इस ऊँचाई पर पहुँच गया तो वो नहीं चाहता था कि उसके प्रेम पर कोई ऊंगली उठाये इसलिए ...................

अब आगे ..............




धीरे -धीरे रोहित ने पूजा से थोड़ी दूरी बनानी  शुरू कर दी बेशक आज भी पूजा ही उसकी प्रेरणा थी मगर फिर भी वो इस तरह रहने लगा जिसमे किसी को आभास ना हो यहाँ तक कि पूजा भी ये ना सोचे बल्कि यही समझे घर गृहस्थी में व्यस्त है वो . शायद समय की यही मांग थी . कुछ प्रेम आधार नहीं चाहते सिर्फ अपने होने में ही संतुष्टि पाते हैं ..........ऐसा ही हाल रोहित के प्रेम का था . अब रोहित ने चाहे अपनी तरफ से दूरियां बढ़ा ली थीं मगर जिस चेहरे को दिन में एक बार देखे बिना उसकी सुबह नहीं होती थी अब कई - कई दिन बीत जाते थे तो ये दंश रोहित को अन्दर ही अन्दर काटने लगा. अपने बनाये मकडजाल में ही रोहित फंसने लगा . अपनी बनाई सीमा को ना तो लांघना चाहता था और ना ही इस पार रह पा रहा था ...........अब वो अन्दर ही अन्दर घुटता था , तड़पता था मगर कभी नहीं चाहता था कि उसकी प्रेरणा पर, उसके पवित्र प्रेम पर कभी कोई लांछन   लगे इसलिए इस पीड़ा को सहन करते - करते कब रोहित अन्दर से खोखला होता गया ,पता ही ना चला ...........उसके जीने की वजह बन चुकी थी पूजा और उसने खुद को ही इस अग्निपरीक्षा में होम किया था ............और जब जंग अपने आप से हो तो इंसान के लिए सबसे ज्यादा मुश्किल होती है ..........संसार से लड़ा जा सकता है मगर अपने आप से लड़ना और जीतना शायद इंसान के लिए बहुत मुश्किल होता है और यही हाल रोहित का था ..........सिर्फ अन्दर से ही नहीं खोखला हो रहा था रोहित बल्कि अब उसका असर शरीर पर भी दिखने लगा था . धीरे - धीरे रोहित का शरीर थकने लगा . एक उदासी ने उसके मन में डेरा लगा लिया था बेशक आज भी पूजा रुपी प्रेरणा से वो उसी उत्साह और उमंग से लिखता था मगर फिर भी शरीर ने साथ देना छोड़ दिया था ............मन की निराशा का असर शरीर पर गहराने लगा और धीरे- धीरे उसने बिस्तर पकड़ लिया मगर किसी से कुछ नहीं कहा और ना ही महसूस होने दिया . 

सभी डाक्टरों को दिखा लिया , अच्छे से अच्छा इलाज करा  लिया मगर किसी भी इलाज का कोई असर ना होता रोहित पर . और फिर एक दिन पूजा जब उसे देखने आई तो उसका हाल देखकर घबरा गयी. काफी जानने की कोशिश की मगर कुछ ना जान पाई बस सिर्फ रोहित की आँखें ही कुछ बोल रही थीं जिन्हें पूजा समझ तो गयी थी मगर उसके आगे जानकर भी अनजान बनी हुई थी . वो किसी भी प्रकार का कोई बढ़ावा नहीं देना चाहती थी जिससे कोई उम्मीद रोहित के दिल में जगे ...........आखिर समझदार औरत थी .

रोहित ने पूजा से कहा , " मेरे जाने के बाद मेरी एक अमानत मैं आपको देना चाहता हूँ क्योंकि उसकी क़द्र सिर्फ आप ही कर सकती हैं "इतना सुनते ही पूजा तमककर बोली ,"रोहित क्या है ये सब, कैसी बातें कर रहे हो ? कहाँ जा रहे हो और कौन तुम्हें जाने देगा ?अरे मैं तो सोच रही थी तुम अपनी गृहस्थी में बिजी हो मगर वो तो मिसेश शर्मा  से पता चला कि तुम इतने बीमार हो . मुझे तो लगता है बीमारी तो बहाना  है आराम करने का . है ना !" इतना सुनते ही रोहित फीकी सी हँसी हँस दिया . 

तब पूजा बोली ," क्या बात है रोहित , क्या कोई परेशानी है? तुम तो हमेशा से हंसमुख इन्सान रहे हो मगर अब ऐसा क्या हो गया जो तुम्हारी ये हालत हो गयी है . निशा बता रही थी कि तुम्हें कोई रोग भी नहीं है इसका मतलब कोई दिल का रोग है तभी ऐसा होता है ..........क्यूँ सही कह रही हूँ ना . "
ये सुनकर रोहित बोला ," पूजा जी , ऐसी कोई बात नहीं है , आपको वहम हो रहा है . सिर्फ काम का बोझ है बाकी इतना तो ज़िदगी में लगा ही रहता है आप बेकार में चिंता कर रही हैं ."

मगर पूजा कौन सी कम थी आज तो ठान कर आई थी कि रोहित को ठीक करके ही आएगी . एक दम बोली , " तुम मुझे क्या समझते हो ? तुम जो कह दोगे मान लूंगी . पहले तो छोटी- छोटी बात के लिए भी मेरे से पूछने आते थे . माना कि अब तुम सयाने हो गए हो मगर इसका मतलब ये नहीं कि मुझसे ज्यादा अक्ल आ गयी है . अब बताओ , कौन सी ऐसी बात है जिसने तुम्हारा ये हाल बना रखा है . " 

मगर रोहित भी कम ना था , वो बार -बार बात को टालता रहा तब पूजा बोली ,"रोहित देखो मुझे लगता है कि तुम अपने और अपने परिवार के साथ ज्यादती कर रहे हो . आखिर तुम्हारे परिवार का क्या दोष ? उन्हें किस बात की सजा दे रहे हो ? क्या उनकी देखभाल करना तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं ? उनके प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना क्या तुम्हारा दायित्व नहीं और ऐसे अन्दर ही अन्दर घुटकर तो तुम उनके साथ भी अन्याय कर रहे हो . देखो तो ज़रा निशा और बच्चों की तरफ-------क्या हाल हो गया है उनका . देखो तुम बेशक कुछ ना बताना चाहो , मैं तुम पर दबाव नहीं डालूंगी मगर फिर भी तुमसे ये उम्मीद जरूर करुँगी कि आज के बाद तुम्हारा ज़िन्दगी के प्रति दृष्टिकोण बदलेगा. ज़िन्दगी सिर्फ ओसारे  की छाँव ही नहीं है . ना जाने किन- किन मोड़ों से इन्सान को गुजरना पड़ता है. सिर्फ अपने लिए जीना ही जीना नहीं होता , कभी- कभी दूसरों के लिए भी जीना पड़ता है . तुम्हारी जो भी समस्या है उसे अगर तुम नहीं बताना चाहते तो मत बताओ मगर उसे स्वयं पर , अपने व्यक्तित्व पर हावी मत होने दो . मनचाहा हर किसी को नहीं मिलता . बच्चा भी चाँद पकड़ने की ख्वाहिश करता है मगर क्या कभी छू सकता है उसे ? अपनी इच्छाओं को , आकांक्षाओं को इतनी उड़ान मत भरने दो कि जीवन ही बेमानी होने लगे . अगर तुम खुद को बदल सको और मेरे कहे पर ध्यान दे सकोगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा. ऐसा लगेगा कि तुमने मेरा मान रखा . इतने सालों  के साथ को इज्ज़त दी है . आज तक तुमसे कुछ नहीं चाहा मगर आज चाहती हूँ कि तुम मुझसे ये वादा करो कि तुम अपनी ज़िन्दगी घुट- घुट कर बर्बाद नहीं करोगे बल्कि भरपूर और खुशहाल  ज़िन्दगी जियोगे अगर तुम्हारी नज़र में मेरा ज़रा भी सम्मान है तो . " 

इतना कह कर पूजा तो चुप हो गयी क्योकि वो समझ तो गयी थी कि मानव मन बेहद भावुक होता है और ज़रा सी भी आशा की किरण कहीं दिखाई  देने लगती है तो वहीँ आसरा बनाने लगता है , ख्वाब संजोने लगता है इसलिए सब कुछ समझते हुए भी जान कर भी अनजान बनते हुए पूजा ने बातें इस तरह कीं  कि जिसके बाद रोहित के लिए कुछ कहने को ना बचे और वो यही समझे कि पूजा एक हितैषी की तरह उसे समझा रही है ना कि वो उसके बारे में , उसके दिल के बारे में सब जान गयी है , ये पता चले इसलिए पूजा ने रोहित से ऐसा वादा लिया ताकि इसे पूजा की ख्वाहिश समझे रोहित और यही ख्वाहिश उसके जीवन का संबल बन जाए आखिर उसके लिए तो पूजा की ख्वाहिश ज़िन्दगी की सबसे बड़ी ख्वाहिश थी ना . उसकी प्रेरणा ने आज उससे कुछ माँगा था और वो मना कैसे कर सकता था ---------शायद ये बात पूजा अच्छी तरह से जानती थी क्योंकि यही उम्मीद की एक किरण उसे नज़र आई थी रोहित को जीवन से जोड़ने के लिए ....................
आज बिना इज़हार के भी प्रेम अपनी बुलंदियों पर पहुँच  गया था .

समाप्त

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

खामोशी की डगर और उम्मीद की किरण …………………………भाग 3

इधर रोहित जब से पूजा से मिला उसमे परिवर्तन आना चालू हो गया. अब उसमे पहले से ज्यादा गंभीरता आने लगी .उसके मन में भावों का सागर अँगडाइयाँ लेने लगता मगर कहे किससे ? कौन समझेगा? इसी उहापोह में धीरे धीरे रोहित ने अपने मन की बातें अपनी डायरी  में लिखनी शुरू कर दीं कविताओं के रूप में. ना जाने क्या- क्या लिखता रहता और कई बार पूजा को भी सुनाता तो वो बहुत खुश होती और रोहित को लिखने को प्रेरित करती रहती उसे क्या पता था कि रोहित के मन में क्या चल  रहा है या वो ये सब उसके लिए लिख रहा है . तो वो जैसे सबको वैसे ही रोहित से भी व्यवहार करती ..................

अब आगे --------------



समय अपनी रफ़्तार से गुजरता रहा और इस बीच रोहित की भी गृहस्थी बस गयी और वो दो प्यारे- प्यारे बच्चों की सौगात से लबरेज़ हो चुका था मगर रोहित ने कभी भी अपने ह्रदय के बंद दरवाज़े किसी के आगे नहीं खोले थे . ये तो उसका निजी प्रेम था , अपनी पीड़ा थी , अपनी चाहत थी जो उसे प्रेरित करती थी और उसने पूजा की प्रतिमा को अपने ह्रदय के मंदिर में विराजमान कर लिया था . उससे प्रेरित होकर ही अपने भावों को संगृहीत करता रहता था. 

अपनी गृहस्थी  से, अपनी जिम्मेदारियों से कभी मूँह नहीं मोड़ा . हमेशा हर जगह तत्पर रहता मगर अपने दिल के अन्दर किसी को भी झाँकने की इजाज़त नहीं देता यहाँ तक कि अपनी पत्नी निशा को भी नहीं मगर उसे उसके अधिकार और प्यार दोनों से कभी वंचित भी नहीं किया ........उसे जो प्यार , सम्मान देना चाहिए और जो हर स्त्री की चाह होती है उसमे कभी कोई कमी नहीं आने दी .

रोहित ने प्रेम को , अपनी प्रेरणा को हमेशा जीवंत रखा अपने अहसासों में , अपनी कविताओं में , जहाँ वो अपने प्रेम के साथ एक ज़िन्दगी जी लेता था . एक दिन किसी काम से पूजा उनके घर आई और रोहित के कमरे में ही बैठी थी और जब निशा घर के कामों में लग गयी  तो पूजा मेज पर रखी चीजें देखने लगी और तभी उसके हाथ रोहित की डायरी हाथ लगी और वो उसे पढने लगी. पढ़ते - पढ़ते पूजा ये तक भूल गयी कि कितना वक्त हो गया और वो कब से बैठी है . उस डायरी में यूँ तो कवितायेँ ही थीं . उनसे से कुछ उसने सुनी भी थीं मगर तब कभी ध्यान नहीं दिया क्यूँकि सुनने और पढने में फर्क होता है मगर उस दिन जब वो पढ़ रही थी तो एक बात ने उसका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया कि जितनी भी कवितायें थी उसमे एक चीज़  खास थी ...........वो था एक नाम ---------पूजा . और इस बात ने उसे अन्दर तक हिलाकर रख दिया. जब उसने देखा हर कविता में पूजा शब्द किसी ना किसी बहाने प्रयोग किया गया है तो वो सन्न रह गयी . अब पूजा इतनी नादान तो थी नहीं जो समझ ना पाती  इसका अर्थ. आखिर शादीशुदा औरत थी भरपूर गृहस्थी  की  मलिका और वैसे भी औरत की छठी इन्द्रिय बहुत तेज़ होती है जो उसे पहले ही आगाह कर देती है . ऐसा ही अब हुआ.


पूजा को समझ आने लगा था कि माज़रा कुछ और भी है मगर वो इसे किसी पर ज़ाहिर नहीं होने देना चाहती थी , पहले अपनी तरफ से इत्मिनान करना चाहती थी . अभी वो इन सब ख्यालों में डूबी हुई ही थी कि उसे पता भी ना चला कि कब से रोहित आकर  उसके पीछे खड़ा है . वो तो रोहित ने जब कहा , "पूजा जी , आज आपके कदम इस गरीब की दहलीज  तक कैसे आ गए ? और ये हमारी अमानत पर दिन -दहाड़े डाका कैसे डाल  रही हैं ?" तब पूजा चौंकी और खुद को संयत करते हुए बोली ,"रोहित , तुम क्या समझते हो , तुम्हारी चोरी कोई पकड़ नहीं सकता. पूजा नाम है मेरा , बड़े बड़ों को पानी पिला देती हूँ ."

इतना सुनते ही रोहित का चेहरा सफ़ेद पड़ गया उसने सोचा ना जाने पूजा को क्या पता चल गया , और जब मन में कुछ छुपा हो तब तो ऐसा होना स्वाभाविक है . क्या वाकई पूजा उसके दिल का हाल जान गयी? अभी रोहित ये सोच ही रहा था कि पूजा बोल पड़ी , " अरे रोहित क्या हुआ? चोरी पकडे जाने से डर गए , देखो तो कैसे पसीने छूट रहे हैं ?" मगर जब पूजा को लगा कि कहीं रोहित को शक ना हो जाए एकदम बात पलटकर बोली , "क्यूँ बच्चू , इतनी सारी कवितायेँ लिख लीं और मुझे सुनाई भी नहीं , पहले तो बड़ी जल्दी- जल्दी सुनाते थे मगर अब तो इतने दिन हो गए क्या हुआ?" तब रोहित की सांस में सांस आई . थोड़ी देर हँसी - मजाक करके पूजा तो चली गयी मगर रोहित सोचने लगा कि आज तो बात आई- गयी हो गयी मगर पूजा जितनी होशियार है ये वो जानता था .कहीं वो उसके भीतर के प्रेम के दर्शन ना कर ले इसलिए थोडा संभलकर रहना होगा. उसका प्रेम उसके लिए पूजा थी और अपनी आराधना में वो पूजा का भी खलल नहीं चाहता था ..........उसे प्रेम का प्रतिकार नहीं चाहिए था सिर्फ पूजा का अधिकार ही चाहिए था और वो उसके पास था ही मगर अपने प्रेम को सार्वजानिक नहीं करना चाहता था ............प्रेम ने कब प्रेम के बदले प्रेम चाहा है वो तो प्रेमी की ख़ुशी में ही खुश रहता है ..........उसके अधरों की एक मुस्कान के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए तैयार रहता है .........जब उसका प्रेम इस ऊँचाई पर पहुँच गया तो वो नहीं चाहता था कि उसके प्रेम पर कोई ऊंगली उठाये इसलिए ...................


क्रमशः ...................

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

खामोशी की डगर और उम्मीद की किरण …………………………भाग 2

बार- बार उसे खींच कर उसी ओर ले जाता था और आँखें खुद को रोक ही नहीं पाती थीं उसे निहारने से ..........ना जाने कैसे वो पूजा के मोहपाश में बंधता जा रहा था............
अब आगे ................



यूँ तो पूजा एक विवाहित महिला थी जिसकी अपनी गृहस्थी थी . पति  , बच्चे , घर परिवार सब था. मगर उसकी हंसमुख और मिलनसार प्रवृत्ति उसे सबके आकर्षण का केंद्र बना देती थी. जो भी मिलता उसका कायल हुये  बिना नहीं रहता. फिर चाहे हमउम्र हो या बड़ा या बच्चा . वो तो सबसे ऐसे बात करती कि किसी को लगता ही नहीं कि उसकी उम्र क्या है या वो उनकी हमउम्र नहीं. सिर्फ थोड़े से समय में ही उसने सारे मोहल्ले के लोगो को अपने स्वभाव से अपना बना लिया था और कोई भी किसी भी समय उसके पास बेझिझक पहुँच जाता था .ऐसे ही एक बार रोहित अपनी माँ के कहने पर किसी काम से पूजा के पास गया . पूजा ने तो उससे उसके बारे में सारी जानकारी ले ली और फिर रोहित से अपने स्वभावानुसार ऐसे बात करने लगी जैसे वो उसकी कितनी पुरानी फ्रेंड हो . शुरू में तो रोहित संकोचवश थोड़ी बहुत बात करके आ गया. मगर बाद में कभी रास्ते में , कभी किसी काम से पूजा से सामना होता ही रहता था और वो उससे ऐसे बात करती कि रोहित को उससे बात करनाअच्छा लगने लगा . पूजा अपने कॉलेज के दिनों की अपनी मस्तियों के किस्से सुनाती और रोहित भी ऐसे सुनता जैसे सब कुछ जानता हो पूजा के बारे में .


रोहित को पूजा की बातें इतना आकर्षित करने लगीं  कि जब तक पूजा से किसी भी बहाने से बात ना हो जाए उसे चैन ही ना पड़ता. उसका तो दिन ही तभी होता जब पूजा की मधुर आवाज़ उसकी हँसी की खनक उसके कानों तक ना  पहुँच जाती. हालांकि  रोहित जानता था की  उसका और पूजा का कोई  मेल नहीं मगर फिर भी वो पूजा के व्यक्तित्व से इतना आकर्षित हो गया कि कोई भी काम होता पूजा से सलाह किये बिना नहीं करता. यहाँ तक कि दोनों के घर वाले भी अब तो हँसी उड़ाने  लगे थे कि कैसे थोड़े दिन में ही पूजा से घुलमिल गया जैसे बरसों से जानता हो मगर सब इस रिश्ते को एक देवर - भाभी के रिश्ते की तरह ही समझते थे.


और इधर रोहित जब से पूजा से मिला उसमे परिवर्तन आना चालू हो गया. अब उसमे पहले से ज्यादा गंभीरता आने लगी .उसके मन में भावों का सागर अँगडाइयाँ लेने लगता मगर कहे किससे ? कौन समझेगा? इसी उहापोह में धीरे धीरे रोहित ने अपने मन की बातें अपनी डायरी  में लिखनी शुरू कर दीं कविताओं के रूप में. ना जाने क्या- क्या लिखता रहता और कई बार पूजा को भी सुनाता तो वो बहुत खुश होती और रोहित को लिखने को प्रेरित करती रहती उसे क्या पता था कि रोहित के मन में क्या चल  रहा है या वो ये सब उसके लिए लिख रहा है . तो वो जैसे सबको वैसे ही रोहित से भी व्यवहार करती ..................


क्रमशः ....................

शनिवार, 13 नवंबर 2010

ख़ामोशी की डगर और उम्मीद की किरण--------भाग १

क्या सबके साथ ही ऐसा होता है ? जब धडकनों के स्पंदन चुगली करने लगते हों , आँखें हर पल बेचैन सी कुछ खोजती हों, लबों पर आकर  हर बात दम तोड़ देती हो और नींद तो जैसे जन्मों की दुश्मनी निकालती हो................दिन के हर पल में सिर्फ एक ही मूरत का दीदार होता हो...........तो क्या कहते हैं इसे.............कैसे ख़त्म होगी ये बेचैनी? मेरे साथ ऐसा क्यूँ हो रहा है ? अब किसी से कहूँगा तो मुझे बीमार समझेंगे या मेरी हँसी उड़ायेंगे ? अब क्या करूँ? ऐसा सोचते -सोचते रोहित बेचैन हो गया . 

जब से वो पूजा से मिला था तब से ही उसका ये हाल था . यूँ तो पूजा को वो पिछले ४-५ महीने से मिल रहा था क्योंकि पूजा उसके घर के पास ही रहने आई थी तो दीदार तो  रोज हो ही जाता था मगर पिछले कुछ समय से उसकी पूजा से बातचीत भी शुरू हो गयी थी और जितना उसने पूजा को जाना उतना ही पूजा का व्यक्तित्व उस पर हावी होता गया. वो खुद को पूजा के आकर्षण में घिरा पा रहा था और जितनी निकलने  की कोशिश करता उतना ही उस चक्रव्यूह में फंसता जा रहा था और अब उसे भी लगने लगा था कि ये सब गलत है मगर दिल था कि मानता ही नहीं था . बार- बार उसे खींच कर उसी ओर ले जाता था और आँखें खुद को रोक ही नहीं पाती थीं उसे निहारने से ..........ना जाने कैसे वो पूजा के मोहपाश में बंधता जा रहा था............

क्रमशः  ...............




बुधवार, 10 नवंबर 2010

कभी दूर होकर भी पास होता है

कभी दूर होकर भी पास होता है
कभी पास होकर भी दूर होता है 
सांवरे ये प्रेम के कैसे भंवर पड़े हैं
जिसमे ना डूबती हूँ ना तरती हूँ
तेरे प्रेम की डोर से ही खींचती हूँ
आस की हर डोर तोड़ चुकी हूँ
तेरा ही गुणगान किया करती हूँ
तेरे दरस को ही तरसती हूँ 
सांवरे तुझ बिन हर पल तड़पती हूँ 
कभी दरस दिखाना कभी छुप जाना 
कभी अपना बनाना कभी बेगाना
तेरी आँख मिचोनी से भटकती हूँ
प्रेम की पीर ना सह पाती हूँ
दिन रात बस राधे राधे रटती हूँ
फिर भी ना तेरी कृपा बरसती है
सांवरे तेरे प्रेम में ऐसे तड़पती हूँ
जैसे सागर में मीन प्यासी 
विरह वेदना ना सह पाती हूँ
तुझसे दूर ना रह पाती हूँ

रविवार, 7 नवंबर 2010

रिश्तों का सौंदर्य

राजू भाग रहा था और गुड्डी उसके पीछे -पीछे उसे पकड़ने के लिए, साथ ही चीखती जा रही थी आज नहीं छोडूंगी तुझे देखती हूँ कब तक भागता है और जैसे ही राजू का पैर अटका तकिये में और वो पलंग पर गिर पड़ा और साथ ही गुड्डी को मौका मिल गया और वो चढ़ गयी उसके ऊपर और लगा दिए ४-५ थप्पड़ दे दनादन तो राजू कौन सा कम था किसी तरह खुद को छुड़ाया और लगा गुड्डी के बाल पकड़ कर झंझोड़ने ..........अब गुड्डी चिल्लाई मम्मी देखो राजू को इसे मना लो नहीं तो मैं इसका सिर फोड़ दूंगी ..........दोनों एक दूसरे से गुत्थम गुत्था हो रहे थे और सुधा ने आकर जैसे ही ये दृश्य देखा अपना सिर पीट लिया ............सुधा चिल्लाई मान जाओ दोनों नहीं तो मैं दोनोको मारूंगी मगर कौन सुने दोनों  में से कोई भी खुद को कम नहीं समझना चाहता था जब सुधा ने देखा कि अब तो एक दूसरे के कहीं ये कोई चोट ना मार दें तो दोनों के १-१ थप्पड़ लगाकर अलग किया साथ ही चेतावनी दे दी कि अब लड़ोगे तो दोनों को घर से ही निकाल दूंगी ..........ये कोई तरीका है घर में रहने का ...........क्या भाई- बहन ऐसे लड़ते हैं तुम तो दोनों ऐसे लड़ रहे हो जैसे टॉम और जैरी लड़ते हैं .तुम दोनों की हर वक्त की लड़ाई से मैं परेशान हो गयी हूँ दोनों में से किसी एक को तो हॉस्टल में डाल दूंगी तब देखती हूँ कैसे लड़ोगे .............ये कहकर सुधा अपने काम में लग गयी.
सुधा परेशान हो जाती थी दोनों की इस तरह की लड़ाइयों  से  .........उसे समझ नहीं आता ये बच्चे अभी से  आपस में इतना लड़ते हैं  और बड़े होकर क्या इनके सम्बन्ध ऐसे बने रहेंगे................वो इसी उलझन में अपने काम करती रही और जब थोड़ी देर बाद उनके कमरे में गयी तो क्या देखती है कि दोनों इकट्ठे खेल रहे हैं मस्ती कर रहे हैं और ये मंज़र देख कर तो कोई कह ही नहीं सकता था कि अभी थोड़ी देर पहले महाभारत मचा हुआ था ............शायद यही भाई- बहन का प्रेम होता है जो पल में तोला तो पल में माशा होता है ...........यही इन रिश्तों का सौंदर्य है जो संबंधों में प्रगाढ़ता का संचार करता है ............आज सुधा अपने बच्चों में ही इस रिश्ते को जीती थी क्योंकि उसके कोई भाई नहीं था ना तो कैसे जान सकती थी कि भाई -बहन का प्रेम कैसा होता है ..........

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

स्मृतियों के पन्नों से .........

कब मिले , कैसे मिले याद नहीं मगर आज भी ऐसा लगता है जैसे युगों से एक दूसरे को जानते हैं ............तुम , तुम्हारी बातें और तुम्हारी नज़र का जादू , सब मिलकर किसी को भी मदहोश करने के लिए काफी होता था और फिर मैं तो उम्र के उस नाज़ुक दौर से गुजर रही थी जहाँ ऐसा होना स्वाभाविक था.तुम्हारा मुस्कुराना जैसे कहीं किसी उपवन में एक साथ हजारों फूल खिलखिला गए हों और बहार मुस्कुरा रही हो.............ये ज़िन्दगी के हसीन पल कोई कैसे भूल सकता है ............ये तो यादों में लहू की तरह पैबस्त हो जाते हैं .

काश ! ज़िन्दगी इन हसीन वादियों में ही गुजर जाती .कभी वक्त की धूप ना इस पर आती मगर वक्त कब माना है उसे तो आना है और हर फूल को कभी ना कभी तो कुम्हलाना है ............ये वक्त की लकीरें कब तुम्हारे चेहरे पर उतर आई और तुमसे तुम्हारी जिंदादिली और मुस्कुराहट सब चुरा ले गयी ...............और तुम भी दाल रोटी की जुगाड़ में अपने जीवन को होम करते गए ..........हर ख़ुशी की आहुति देते गए और मैं साए की तरह तुम्हारे अस्तित्व पर पड़ते इन सायों की राजदार बनती गयी .

 मैं तुम्हें तुमसे ज्यादा जानती हूँ ..........तुम्हारी आँखों में छुपे खामोश तूफ़ान को महसूसती हूँ और उसे अपने वजूद में समेटना चाहती हूँ मगर तुम उसमे किसी को आने ही नहीं देते .........ये कैसी तुम्हारी ख़ामोशी की दीवार है जिसके पार तुम ना तो खुद देखना चाहते हो और ना मुझे आने की इजाज़त देना चाहते हो ..........जो तुम लफ़्ज़ों में बयां नहीं कर पाते उन सभी अहसासों को मैं जी लेती हूँ ............बस यही चाह है कि तुम एक बार मौन के सागर से बाहर तो निकलो , अपने अहसासों को बांटो तो सही ..........अपनी चाहत को एक बार बताओ तो सही चाहे मुझे पता है सब मगर एक बार तुम्हारे मूँह से सुनना चाहती हूँ शायद इसलिए ताकि तब तुम्हारे अन्दर बैठे तुम बाहर आ सको ..........मौन को शब्द मिल सकें और सफ़र कुछ आसान हो सके .

जब ये शब्द राकेश ने पढ़े तो फूट- फूट कर रो पड़ा और डायरी  के पन्ने में छुपे दर्द को महसूस करने लगा ..............आज सुरभि की डायरी के ये पन्ने उसे अन्दर तक भिगो गए ............कितनी अच्छी तरह सुरभि उसे जानती थी .........हर पल कैसे उसकी सुख दुःख की भागी बनी रही और उसे हर पल जीवन से लड़ते देखती रही ............आज जब उम्र की आखिरी दहलीज पर वो खड़ा था और ज़िन्दगी का हर फ़र्ज़ पूरा कर चुका था तब भी उसे लग रहा था जैसे आज उसने अपना सब कुछ लुटा दिया हो  ...........आज वो फिर सुरभि के साथ उन ही पलों को जीना चाहता था ...........जो वो चाहती थी ...........उस मुस्कराहट को फिर पाना चाहता था जिसकी सुरभि दीवानी थी और कुछ पल का साथ चाहता था सिर्फ सुरभि के लिए , सुरभि के साथ मगर वक्त के क्रूर हाथों ने वो सुख भी छीन लिया था और वो अकेला उसकी यादों और डायरी के पन्नों में कभी खुद को तो कभी सुरभि को ढूँढ रहा था अपनी बूढी , बेबस ,लाचार आँखों से ..........

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

परसों आने का वादा करके ................

परसों आने का 
वादा करके 
मोहे भूल गए
साँवरिया 

बातों का भुलावा 
दे गए मोहन
करके कितनी 
चिरोरियाँ
मोहे भूल गए
साँवरिया 


छवि दिखला के 
अपना बनाकर
भुलावा दे गए
प्रीतम

दिखा के अपनी 
सुरतिया 
मोहे भूल गए
साँवरिया


प्रेम का दीप
जलाकर

विरह वेदना को
बढाकर 

 हाथ छोड़ गए
मोहनिया
मोहे भूल गए
साँवरिया


बरसों बीते
श्याम बिन रीते
ना जानी साँझ
और दुपहरिया
मोहे भूल गए
साँवरिया

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

पिया रूठ गए

सखी री 
पिया रूठ गए 
मो से सांवरिया
रूठ गए
मोहे अकेला
छोड़ गए
विरह अगन का
दावानल जला गए
अब का से करूँ
शिकायत 
का से कहूँ मैं
जिया की बात 
कोऊ ना समझे 
पीर 
सखी री
प्रेम के सुलगते 
सागर की
हर उठती -गिरती 
लहरें 
प्रेम अगन 
बढाती हैं
कैसे बंधे 
अब धीर
सखी री
वो यशोदा 
का लाला 
धोखा दे गया 
भरे जोवन में
योगन बनाय गया
सखी का से कहूं
अब जिया की पीर
चैन मेरा 
ले गया
भरे बाज़ार 
धोखा दे गया
अब कैसे धरूँ 
मैं धीर
सखी री
पिया रूठ गए
मो से सांवरिया 
रूठ गए 

सोमवार, 27 सितंबर 2010

हाँ , अपना शत्रु में आप बन गया हूँ

अपना शत्रु मैं
आप बन गया 
विषय भोगों 
में लिप्त हो
इन्द्रियों का
गुलाम मैं
खुद बन गया
तेरा बनकर भी
तेरा ना बन पाया
और अपना आप
मैं भूल गया
अब भटकता 
फिरता हूँ
मारा - मारा
मगर मिले ना
कोई किनारा
जन्म- जन्म की
मोहनिशा में सोया
अब ना जाग 
पाता हूँ
जाग- जाग कर भी
बार - बार
विषय भोगों के
आकर्षण में
डूब - डूब जाता हूँ
विषयासक्ति से 
ना मुक्त हो पाता हूँ
विषयों की दावाग्नि 
में जला जाता हूँ
मगर छूट 
नहीं पाता हूँ
हाँ , अपना शत्रु में
आप बन  गया हूँ

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

नई सुबह ---------अंतिम भाग

मेरा संपादक हमेशा चाहता था कि मैं दुनिया के सामने आऊं मगर अब कोई इच्छा बाकी नहीं थी इसलिए चाहता था कि अपने लेखन से कुछ ऐसा कर जाऊं ताकि कुछ लोगों का जीवन बदल जाए . 


बस यही मेरी ज़िन्दगी की सारी हकीकत है सर, इतना कहकर माधव चुप हो गया ................


अब आगे ........


अब हर्षमोहन बोले , " चलो , उठो , मेरे साथ चलो. माधव ने पूछा , " कहाँ "? मगर बिना कोई जवाब दिए हर्षमोहन चलते गए और उनके पीछे पीछे माधव को भी जाना पड़ा. 


वो उसे अपने साथ लेकर एक आश्रम में गए और उसे एक कमरे में बैठाकर चले गए. माधव सारे रास्ते पूछता रहा मगर हर्षमोहन खामोश बैठे रहे  सिर्फ इतना बोले ,"आज का दिन तुम कभी नहीं भूलोगे ". 


थोड़ी देर में हर्षमोहन आये और बोले , " माधव , तुम परेशान हो रहे होंगे   कि ये मैं तुम्हें कहाँ ले आया हूँ . देखो ये एक विकलांग बच्चों  का आश्रम है . यहाँ देखो , बच्चों को उनकी विकलांगता का कभी भी अहसास नहीं होने दिया जाता और उन्हें हर तरह से आगे बढ़ने के लिए हर संभव सहायता प्रदान की जाती है . मुझे यहाँ आकर बड़ा सुकून मिलता है . पता है माधव , मैं खुद को भी एक विकलांग महसूस करता हूँ . आज मेरे पास धन- दौलत ,प्रसिद्धि सब kuch है . देखने में हर इन्सान यही कहेगा कि इसे क्या कमी हो सकती है मगर देखो मेरी धन -दौलत सब एक जगह  आकर हार गयी और मैं कुछ ना कर सका . चाहे सारी दुनिया की खुशियाँ भी समेट कर अगर एक पलड़े में रख दी जायें तो भी चेहरे की सिर्फ एक मुस्कान के आगे वो सब फीके हैं. अब बताओ , मुझसे ज्यादा विकलांग कौन होगा जो सब कुछ होते हुए भी अपंगों की ज़िन्दगी जीने को बेबस हो गया हो " . 


माधव को कुछ समझ नहीं आ रहा था . वो तो सिर्फ उनकी सुने जा रहा था और इस असमंजस में था कि इतना सब कुछ होते हुए भी उनके दिल की ऐसी कौन सी फाँस है जिसने उन्हें या कहो उनकी सोच को विकलांग बना रखा है और वो खुद को असहाय  महसूस कर रहे हैं. फिर उसने  पूछा , " ऐसी कौन सी कमी है जो आप अपने को विकलांग महसूस करते हैं ".
तब उन्होंने कहा कि माधव  , आज  अपनी विकलांगता से मिलवाता हूँ और वो उसे एक कमरे में लेकर गए वहाँ माधव ने देखा कि एक लड़की छोटे- छोटे विकलांग बच्चों की बड़ी तन्मयता से सेवा करने में लगी है मगर पीठ होने की वजह से वो उसे देख नहीं पा रहा था  मगर हर्षमोहन ने जैसे ही पुकारा ," बिट्टो देखो तो आज मैं क्या लेकर आया हूँ. तुम्हारी सारी ज़िन्दगी की तपस्या का फल आज मैं अपने साथ लाया हूँ. जो तुम स्वप्न में भी नही सोच सकती थीं आज वो हो गया .बस एक बार ज़रा नज़र तो घुमा कर देखो और फिर माधव से बोले ,"ये लो मिलो मेरी विकलांगता से जिसके प्यार ने मुझे पंगु बना दिया . जिसके चेहरे की एक मुस्कान के लिए मैं पिछले कितने सालों से एक पल में कितनी मौत मर- मर  कर जीता रहा हूँ ".

और जैसे ही लड़की मुड़ी और माधव की तरफ देखा तो  माधव की आँखें फटी की फटी रह गयीं . उसके सामने शैफाली खडी थी और शैफाली  , वो तो जैसे पत्थर की मूरत सी खडी रह गयी. कुछ बोल ही नहीं पाई. ऐसी अप्रत्याशित घटना थी जिसके बारे में उन तीनो में से किसी ने नहीं सोचा  था. तीनो को ही आज संसार की सबसे बड़ी दौलत मिल गयी थी. तीनो को ही उनकी चाहत मिल गयी थी क्योंकि शैफाली ने ज़िन्दगी भर शादी किये बिना विकलांग बच्चों की सेवा करने की ठान ली थी और पिता का घर छोड़कर उसी आश्रम में रहने आ गयी थी और हर्षमोहन के लिए तो ये बात मरने  से भी बदतर थी मगर शैफाली के आगे उनकी एक नहीं चली थी और मजबूरन उन्हें उसकी इच्छा के आगे अपना सिर झुकाना पड़ा था मगर वो ऐसे जी रहे थे जैस किसी ने शरीर से आत्मा निकाल ली हो और आज का दिन तो जैसे तीनो की जिंदगियों में एक नयी सुबह का पैगाम लेकर आया था जिसमे तीनो की ज़िन्दगी में एक नयी उर्जा और रौशनी का संचार कर दिया था . 


समाप्त 

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

नई सुबह -------भाग ८

उसका नाम कृष्णा था. मगर मुझे ये नहीं पता चल पाया कि पागलखाने से भाग जाने के बाद मैं कहाँ रहा ? कैसे दिन गुजरे? किसने देखभाल की? इस बारे में मुझे कुछ पता नहीं चल पाया. 

अब कृष्णा ने कहा ,"अब तुम क्या करोगे भैया "?................

अब आगे ..............


मैंने कहा , "  मुझे तो समझ नहीं आ रहा क्या करूँ , कहाँ जाऊं? मैं आखिर जिंदा ही क्यों हूँ ? अब किसके लिए जियूँ ? कौन है मेरा? मेरा तो सारा संसार ही लुट चुका ". तब कृष्णा ने कहा ," अगर आप बुरा ना मानो तो या तो आप ज़िन्दगी को नए सिरे से शुरू करो या मेरे साथ मेरी झोंपड़ी में रहने चलो". मैंने कहा , " अब किसके लिए नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू करूँ ? अब तो जीने की चाह ही नहीं रही  ". तब कृष्णा मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपनी झोंपड़ी में ले गया .


झोंपड़ी क्या थी सिर्फ इतनी कि दो लोग मुश्किल से पैर फैला सकते थे . एक नया ही अनुभव था मेरे लिए. जैसा जीवन जीने के बारे में कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था आज वो नारकीय जीवन मेरे सामने था मगर मुझे इस सब की कोई परवाह ना थी . जब इन्सान की जीने की चाह ख़त्म हो जाए तो फिर वो किसी भी हाल में रह लेता है . कृष्णा भीख माँग कर गुजारा करता था . जो भी मिलता उसी से अपना और मेरा पेट भरता था . यहाँ तक कि कभी -कभी वो खुद भूखा सो जाता मगर मेरा पेट जरूर भरता . हाँ ,यदि कुछ ना मिलता तो दोनों भूखे पेट ही सो जाते . 


कुछ दिन तक सब यूँ ही चलता रहा और अब मैं भी उसका अभ्यस्त हो चला था तब मुझे बहुत ही आत्मग्लानि होने लगी कि मेरी वजह से वो बेचारा इतना दुखी होता है मगर कभी उफ़ नहीं करता . मैं उसका लगता क्या हूँ........कुछ भी नहीं मगर फिर भी उसके चेहरे पर कभी शिकन नहीं आती . हमेशा हर हाल में मुस्कुराता रहता है. क्या मैं उस पर बोझ बनकर रहूँगा हमेशा ...........जब ये अहसास हुआ तो मुझे लगा कि मुझे भी कोई  काम करना चाहिए  इसलिए मैंने एक दिन उससे कहा कि मुझे भी अपने साथ काम पर लगा दो . घर में खाली बैठा रहता हूँ. उसने काफी मना किया मगर मैं उसके साथ अगले दिन ज़बरदस्ती चला गया मगर मुझसे भीख मांगी ही नहीं गयी क्योंकि ये तो मेरे संस्कारों में ही नहीं था . 


मैंने अगले दिन से दूसरी जगहों पर काम करने की कोशिश की मगर मुझे तो कोई काम आता नहीं था इसलिए लाख कोशिशों के बाद भी मुझे काम नहीं मिला.मजदूरी भी करनी चाही मगर कभी इतनी मेहनत की नहीं थी तो शरीर ने साथ नहीं दिया और बीमार पड़ गया ..........इसका बोझ भी कृष्ण पर ही पड़ा , इससे तो मैं और बेचैन हो गया . एकतो खुद पहले ही उस पर बोझ था ही अब मेरी बीमारी की वजह से वो और परेशान था .मुझे अपने आप से घृणा होने लगी...........क्या है मेरे जीवन का उद्देश्य ...........क्या यही कि दूसरों को दुःख ही देता रहूँ...............अपनी हर मुमकिन कोशिश की मगर कहीं कोई नौकरी भी नहीं मिली क्योंकि हर किसी को कोई ना कोई जमानत चाहिए थी और मेरा तो इस संसार में अपना कहलाने वाला कोई नहीं था इसलिए थक हार कर मैं एक बार फिर उसके साथ जाने लगा . मुझसे भीख तो नहीं मांगी गयी मगर एक कटोरा लेकर खड़ा रहता था . जो भी अपने आप डाल जाता तो ठीक मगर मैं कभी खुद नहीं माँगा करता था.

तभी एकदिन लाल बत्ती पर खडी एक गाडी पर लिखा शेर मैंने पढ़ा तो याद आया कि कभी मैं भी इस फन में माहिर हुआ करता था. तभी एक विचार कौंधा कि क्यों ना अपने उसी हुनर का प्रयोग करूँ और मैंने एक बार फिर से लिखना शुरू कर दिया और भीख से मिले पैसे बचाने लगा ताकि जब पैसे इकठ्ठा हो जाएँ तो अपनी एक किताब छपवाऊं और जितने भी मेरे आस पास के भिखारी दोस्त हैं इनके जीवन में खुशियों का कुछ तो उजाला कर सकूँ . मेरे इस प्रयत्न का जब कृष्णा को पता चला तो वो भी इसमें सहयोग करने लगा और पैसे बचाने लगा . यहाँ तक कि इस चाह में ना जाने कितनी ही रातें वो भूखा सोया होगा.



फिर एक दिन मैं  प्रकाशन के लिए सम्पादक के पास अपनी किताब छपवाने के आशय से गया और अपना लिखा उन्हें पढवाया . वैसे तो ये काम इतना आसान नहीं था मगर मेरा लिखा पहला पृष्ठ पढ़ते ही संपादक मेरे लेखन का कायल हो गया और उसने कम से कम पैसों में मेरी पुस्तक छापने और बिक्री का प्रबंध किया . शायद मेरी नेकनीयती की वजह से भगवान को मुझ पर पहली बार दया आ गयी थी तभी मेरा पहला ही संस्करण इतना लोकप्रिय हुआ कि हाथों हाथ बिक गया और उसके बाद मुझे कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा . बस मैंने इतना किया  कि वहाँ भी मैंने अपना परिचय किसी को नहीं दिया क्योंकि अब कोई लालसा बची ही नहीं थी . अपने लिए जीने की चाह तो कब की मिट चुकी थी बस अब तो उन किताबों की बिक्री से प्राप्त पैसे को मैं पूरा का पूरा सिर्फ अपने भिखारी दोस्तों और आस- पास के दूसरे झुग्गी- झोंपड़ी वासियों पर खर्च कर दिया करता था . यहाँ तक कि उस पैसे का एक भी रुपया अपने ऊपर खर्चा नहीं करता था और सिर्फ भीख के पैसे से ही अपना गुजर -बसर करता था क्योंकि मेरे मन में एक विश्वास घर कर गया था कि ये सब उन सबकी दुआओं और भूखे पेट सोकर बचे पैसे की बदौलत ही संभव हो पाया है और वो पैसा मेरे लिए मेरी पूजा का प्रशाद बन चुका था जिसे मैं सबमे बाँटकर बेहद शांत और खुश महसूस करता था ............जब किसी चेहरे पर ख़ुशी देखता तो मुझे आत्मिक शांति मिलती ..........बस उस पल लगता शायद ईश्वर ने मुझे इन सबकी सेवा के लिए भी बचा कर रखा था ...........जो सुख देने में है वो लेने में कहाँ ...........ये तब जान पाया था और अब इसे ही मैंने अपने जीवन का ध्येय बना लिया था. 

मेरा संपादक हमेशा चाहता था कि मैं दुनिया के सामने आऊं मगर अब कोई इच्छा बाकी नहीं थी इसलिए चाहता था कि अपने लेखन से कुछ ऐसा कर जाऊं ताकि कुछ लोगों का जीवन बदल जाए . 


बस यही मेरी ज़िन्दगी की सारी हकीकत है सर, इतना कहकर माधव चुप हो गया ................


क्रमशः.................अगली किस्त आखिरी है 

 

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

नई सुबह ............भाग ७

और मैं अपने घर की और चीखते -चिल्लाते हुए दौड़ा. मेरे पीछे -पीछे एक भिखारी दोस्त भी भागा मुझे आवाज़ देते हुए -रूक जाओ भैया, रूक जाओ लेकिन मुझे तो होश ही नहीं था. मुझे तो वो ही याद था कि मेरे माँ बाप इस दुनिया में नहीं रहे और मुझे उनका अंतिम संस्कार करना है ................अब आगे ...........


जब मैं अपने घर पहुँचा तो वहाँ तो एक  आलिशान कोठी खडी थी और उसमे कोई और रहता था . मैंने कहा ये मेरा घर है मगर वहाँ मेरी कोई सुनवाई नहीं हुई . आस- पास वालों से बात करने पर पता चला कि मेरे माता- पिता की मृत्यु का गहरा सदमा लगा था मुझे और मैं पागल हो गया था इसलिए मुझे पागलखाने में दाखिल करा दिया गया था . कुछ दिन तो जान- पहचान वाले आते रहे और दोस्त भी, मगर धीरे- धीरे सबने आना बंद कर दिया . ना ही किसी ने घर को देखा और ना ही मुझे . यहाँ तक कि मेरे मकान पर भी असामाजिक तत्वों ने कब्ज़ा कर लिया और फिर उसे ऊँचे दामों पर बेच दिया और जिसने ख़रीदा वो भी वहाँ कोठी बनाकर रहने लगा था . पडोसी तो क्या कर सकते थे .........बदमाशों से सभी डरते हैं इसलिए वो सब भी चुप रहे ..........रिश्तेदार सब सुख के ही साथी होते हैं और जिसका कुछ ना रहा हो उस तरफ कौन ध्यान देता है इसलिए सभी ने किनारा कर लिया . 


पड़ोसियों ने ही बताया कि एक लड़की आया करती थी . उसी से तुम्हारा हाल- चाल मिला करता था मगर पिछले ३-४ साल से उसका भी कोई पता नही क्योकि आखिरी बार जब वो आई थी तो उसी से पता चला था कि एक दिन तुम पागलखाने से भाग गए थे और वो तुम्हें ढूंढती हुई ही आई थी मगर उसके बाद उसका भी कुछ पता नहीं था. 


ये सब सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे भगवान ने सारे जहान के  दुःख मेरे ही हिस्से में लिख दिए है . मैंने अपनी तरफ से हर मुमकिन कोशिश की कि किसी तरह शैफाली  का पता चल जाये मगर मुझे उसका पता नहीं मिला . यहाँ तक कि कॉलेज से भी पूछने की कोशिश की तो वहाँ भी किसी ने कोई जानकारी नहीं दी क्यूँकि किसी लड़की के बारे में जानकारी तो वैसे भी मुहैया नहीं कराते जल्दी से .आज अपनी बेवकूफी पर अफ़सोस हो रहा था कि कभी शैफाली के घर क्यूँ नहीं गया , उसका पता क्यूँ नहीं पूछा . फिर भी अपनी तरफ से हर कोशिश के बाद भी मैं हारता ही गया . हर जगह निराशा ही हाथ लगी. 


यहाँ तक कि मुझे अफ़सोस होने लगा कि भगवान तू मुझे होश में ही क्यों लाया ? कम से कम बेहोशी में दुनिया के हर गम से दूर  तो था मगर इस भरी दुनिया में अपना कहने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं था . यार- दोस्तों का भी नहीं पता कौन कहाँ चला गया था और वैसे भी उनसे क्या उम्मीद जिन्होंने मुझे किस्मत के भरोसे छोड़ दिया हो. अब तो मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं जिंदा ही क्यूँ हूँ? 

मगर इतना सब कुछ होते हुए  भी मेरे साथ जो मेरा भिखारी दोस्त था वो मेरे साथ साये की तरह था और हर बार मेरा होंसला बढ़ा रहा था .अब मैंने उससे पूछा ,"मैं तुम्हें कैसे मिला "? तब उसने बताया कि जब उन लोगों के झगडे में तुम्हें चोट लगी थी तो सब तुम्हें तड़पता हुआ छोड़ कर चले गए थे और तुम बेतहाशा कराह रहे थे तब मैंने ही तुम्हारी देखभाल की थी और उसी पल से मैं तुम्हारे साथ हूँ. उसका नाम कृष्णा था. मगर मुझे ये नहीं पता चल पाया कि पागलखाने से भाग जाने के बाद मैं कहाँ रहा ? कैसे दिन गुजरे? किसने देखभाल की? इस बारे में मुझे कुछ पता नहीं चल पाया. 


अब कृष्णा ने कहा ,"अब तुम क्या करोगे भैया "?................


क्रमशः ..................

शनिवार, 11 सितंबर 2010

नई सुबह ---------भाग ६

शैफाली  ने पूछा , " अच्छा बताओ ये सब कैसे हुआ. १५ दिन में ही इतना सब कैसे बदल गया. कौन सा ऐसा चमत्कार हुआ कि तुम्हारे लेखन में इतनी उत्कृष्टता आ गयी "?


तब मैंने कहा ---------------
अब आगे ......................

तब मैंने कहा ," ये सब तुम्हारे ही कारण हुआ और उसे इतने दिन में क्या क्या महसूस किया सब बता दिया साथ ही उससे अपने प्यार का इज़हार कर दिया कि शैफाली ये सब तुम्हारे प्यार ने ही करवाया है. मुझे नहीं पता था कि प्यार में इतनी शक्ति होती है जो एक आम इंसान को खास बना देता है ".
मेरे इतना कहते ही शैफाली ने अचानक जोर से अपना हाथ खींचा और उठ खडी हुई और बोली ," माधव ये तुम क्या कह रहे हो ? मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा. तुम और मैं तो सिर्फ अच्छे दोस्त हैं . तुमने ऐसा कैसे सोच लिया ".


तब मैंने कहा , "मुझे भी नहीं पता था कि मुझे तुमसे प्यार हो गया है . ये तो राकेश ने मुझे इसका अहसास करवाया. अच्छा बताओ , बिलकुल सच -सच बताना , कि क्या तुम्हें मैं कभी याद नहीं आया इतने दिनों में. क्या तुम्हारा वहाँ मन लगा मेरे बिना. क्या तुम मुझसे मिलने के लिए बेचैन नहीं थीं ".


इन बातों का तो शायद शैफाली के पास भी कोई जवाब नहीं था . वो मुझे बिना कुछ कहे चुप चाप वहाँ से चली गयी और मैंने भी उसे नहीं रोका ताकि वो भी इस अहसास को महसूस कर सके ..........कुछ देर इसमें भीग सके और फिर कोई फैसला करे. हाल बेशक दोनों तरफ एक जैसा था मगर वो अभी इसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी . कई दिन शैफाली मुझसे बचती रही . सामने आने पर कोई  ना कोई काम का बहाना बनाकर चली जाती.और मैं उसका इंतज़ार कर रह था कि कब वो मेरे प्रेम को स्वीकारती है और अपने प्रेम का इज़हार करती है.


इसी बीच मैं घर से सीढियां उतरते समय गिर पड़ा और पैर की हड्डी तुडवा बैठा . अब तो उससे मिलना नामुमकिन हो गया. ना जाने अभी कितनी ही बातें अधूरी थीं मगर सब अधूरी ही रह गयीं. मगर एक दिन अचानक कॉलेज के सारे दोस्त मेरा हाल पूछने मेरे घर आ गए उनके साथ शैफाली भी थी . उस दिन तो वो सबके साथ जैसी आई थी वैसी ही चली गयी थी मगर उसके २ दिन बाद वो फिर आई और आते ही जब हम कमरे में अकेले थे , माँ चाय बनाने गयी हुई थी इसी बीच बोली , " माधव तुम जल्दी से ठीक हो जाओ . अब मेरी समझ में आ गया है कि तुम सही कह रहे थे . शायद हम दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं. अब तुम्हारे बिना कॉलेज जाने का मन नहीं करता .हर तरफ तुम ही दिखाई देते हो . हमारी दोस्ती कब प्यार में बदल गयी ना तुम्हें पता चला ना मुझे मगर अब जब अहसास हो गया है तो स्वीकारोक्ति में देर क्यूँ करें".


मुझे तो यूँ लगा जैसे मेरी टांग पहले क्यूँ नहीं टूटी कम से कम ये ख़ुशी पहले नसीब हो जाती . अब तो ज़िन्दगी एक अलग ही राह पर बह निकली थी. अब हर दिन एक नया दिन बन कर आता. जैसे खुदा ने सारे जहाँ की खुशियाँ समेट कर मेरे दामन में डाल दी हों .मेरे पैर तो जैसे किसी ने फूलों की मखमली चादर पर रख  दिए हों और वक़्त अपनी रफ़्तार से उडा जा रहा हो .मेरे माता पिता तो उसी में खुश थे जिसमे मेरी ख़ुशी थी मगर मैं अभी तक ना शैफाली के घर जा सका  था और ना ही उसके पिता से मिल पाया था. ना ही कभी शैफाली ने चाहा कि मैं उनसे मिलूँ. कभी इस तरफ ध्यान ही नहीं गया था. उसकी माँ नहीं थी और वो भी अपने पिता की  इकलौती संतान थी. दिन सपनो की तरह रोज  नए रंग के साथ गुजर रहे थे और हम आसमान की रंगीनियों में विचरण कर रहे थे बिना सोचे कि वक्त जितना इन्सान पर मेहरबान होता है उतना ही बेरहम भी होता है...........कब अपनी दी हर सौगात एक ही झटके में छीन लेता है पता भी नहीं चलता और उस पल इंसान बेबस , खाली हाथ सिर्फ वक़्त को कोसता रह जाता है. 


जैसे किसी को एक ही दिन में अचानक सारे जहाँ की दौलत मिल गयी हो और एक ही पल में वो कंगाल हो गया हो ऐसा एक हादसा मेरी ज़िन्दगी को बदलने के लिए काफी था. दुर्भाग्य ने मेरी किस्मत का दरवाज़ा खटखटा दिया था . मेरे माता पिता का एक एक्सिडेंट में देहांत हो गया. मेरी तो सारी दुनिया ही उजड़ गयी  . मैं तो जैसे भरे बाज़ार में लुट गया था. एक दम पागल सा हो गया था मैं . इतना गहरा सदमा लगा था मुझे कि मेरा अपने होशो हवास पर काबू ही नहीं रहा. मेरा तो सब कुछ मेरे माँ बाप थे , उनके बिना मैं अधूरा था .मुझे नहीं पता कब और कैसे मेरे माता पिता की अंत्येष्टि हुई. कितने महीने , साल मेरी ज़िन्दगी के शून्य में खो गए मुझे नहीं पता. जब ८ साल बाद होश आया तो खुद को सड़क पर भटकता पाया. मैं एक भिखारी के रूप में दर- दर भटक रह था.दो लोगों  के झगडे की चपेट में आने से एक डंडा मेरे सिर पर ऐसा पड़ा कि जो मैं भूल गया चुका था वो सब  याद आ गया और मैं अपने घर की और चीखते -चिल्लाते हुए दौड़ा. मेरे पीछे -पीछे एक भिखारी दोस्त भी भागा मुझे आवाज़ देते हुए -रूक जाओ भैया, रूक जाओ लेकिन मुझे तो होश ही नहीं था. मुझे तो वो ही याद था कि मेरे माँ बाप इस दुनिया में नहीं रहे और मुझे उनका अंतिम संस्कार करना है ................


क्रमशः ..........


 

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

नई सुबह ----------भाग ५

इसी बीच शैफाली की क्लास से एक सेमिनार १५ दिनों के इए शिमला जा रहा था और वो भी वहाँ जा रही थी . ये एक साधारण बात थी तो मैंने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया मगर जब शैफाली चली गयी तो .................
अब आगे-----------

मगर जब शैफाली चली गयी तो मेरा मन उदास रहने लगा. मुझे कुछ भी  अच्छा ना लगता . एक बेचैनी -सी हर जगह छाई रहती. मैं खोया- खोया सा रहने लगा. सारा कॉलेज उसके बिना सूना -सूना सा  लगने लगा. चारों तरफ वीराना नज़र आता. किसी से बात करने का दिल न  करता. दोस्त कुछ कहते तो उन पर भड़क जाता.............उनकी छोटी से छोटी बात भी मुझे चुभने लगी  थी. मैं परेशान  हो गया कि ये मुझे क्या हो रहा है इसलिए घर जल्दी चला जाता मगर चैन तो कहीं नहीं आ रहा था हर जगह मुझे उदास , खामोश, वीरान नज़र आती. एक अजीब सी  जद्दोजहद से गुजर रहा था और इस हाल में एक दिन मैंने फिर लिखना शुरू किया ताकि अपने को कुछ बिजी रख सकूँ. 


अब हर शेर , हर ग़ज़ल में सिर्फ दर्द ही दर्द , विरह और प्रेम के रंग भरे थे. रात दिन खुद को सिर्फ और सिर्फ लेखन में ही डुबा दिया ताकि कुछ पल चैन से जी सकूँ  वरना तो हर प़ल काट खाने को आता था. 


१५ दिन कैसे बीते ये तो सिर्फ मैं ही जानता था मगर अगले दिन शैफाली आ गयी होगी मुझसे मिलेगी आते ही ,इसी उत्साह में रात कैसे कट गयी पता ही नहीं चला. इन्सान का मन भी कैसा होता है कभी तो इंतज़ार का क्षण- क्षण उसे युगों से बड़ा लगता है और कभी एक युग भी एक क्षण सा प्रतीत होता है. सब वक़्त का ही तो खेल है. कुछ ऐसा ही हाल मेरे मन का था. 


अगले दिन शैफाली से मिलने के लिए मैं जल्दी से जल्दी पंख लगाकर उड़कर कॉलेज पहुंचना  चाहता था. मैं जल्दी से उसी जगह पहुच गया जहाँ हम  मिला करते थे मगर वहाँ शैफाली नहीं  थी  तो मैं उसे उसकी क्लास में ढूँढने गया तो पता चला कि वो नहीं आई है. उसकी शिमला में तबियत ख़राब हो गयी थी इसलिए कुछ दिन बाद आएगी.


आज मुझे अफ़सोस हो रहा था कि इतने दिन हो गए हमें मिलते मगर कभी भी हम दोनों ने एक -दूसरे के घर -परिवार के बारे में कोई जानकारी नहीं ली . मैं  तो आज तक जानता ही नहीं था कि उसका घर कहाँ है. अब इंतज़ार करने के अलावा मेरे पास और कोई चारा नहीं था . मैं क्यूँकि लड़कियों से ज्यादा बात नहीं करता था तो उसकी सहेलियों से भी इस बारे में नही पूछ सकता था कि ना जाने कोई उसका क्या मतलब निकाले .


अब हर दिन उसके इंतज़ार में बीतने लगा और मेरी बेचैनी भी बढ़ने लगी. यार दोस्त मुझसे बात करना चाहते मेरा दिल बहलाना चाहते मगर मेरे तो होशोहवास पर मेरा ही काबू ना था. 


एक दिन मेरे एक दोस्त राकेश ने कहा ,"माधव तू मान न  मान  लेकिन ये  सच है मेरे यार , तुझे शैफाली से प्यार हो गया है. ये बेचैनी, उसके बिना कुछ भी अच्छा ना लगना, दोस्तों से भी बात ना करना,हर वक्त कहीं खोया खोया रहना --------ऐसा तभी होता है जब किसी को किसी से प्यार हो जाता है . तू हर वक़्त उसी का इंतज़ार करता रहता है . उसके नाम लेने पर तेरे चेहरे पर मुस्कान खिल जाती है जैसे लाखों गुलाब एक साथ एक ही बार में खिल गए हों और उसके बगैर तू ऐसा रहता है जैसे किसी ने तेरा सब कुछ छीन लिया हो , अब तू ही बता ये प्यार नहीं है तो और क्या है.अब मान भी जा इस बात को नहीं तो अपने दिल से पूछ कर देख ------क्यों तू ऐसा हो गया. क्या पहले तू ऐसा था. हर दम ज़िन्दगी से भरपूर खुद भी खुश रहता और दूसरों को भी हँसाता रहता था मगर अब देख अपने आप को . कोई भी तुझे जानने वाला पहली ही नज़र में बता देगा कि तुझमे बदलाव आ गया है और ये बदलाव तो सुखद है. अगर तुझे महसूस होता हैकि मैं सही कह रहा हूँ तो इस बारे में सोचना और अपने प्यार का इज़हार कर ताकि हमें हमारा वो ही पुराना दोस्त वापस मिल जाए".


इतना कहकर राकेश तो चला गया मगर अपने पीछे सौ सवाल छोड़ गया.


आज मैं सोचने को मजबूर हो गया था कि कहीं राकेश सही तो नहीं कहा रहा था. कहीं ये सारे लक्षण  प्यार के तो नहीं . क्या सचमुच मुझे प्यार हो गया है जो मैं शैफाली के बिना रह नहीं पाता हूँ. उसके साथ के बिना अधूरा महसूस करना , शायद यही प्यार है. 


अब मैं शैफाली के आने का इंतज़ार करने लगा . करीब एक हफ्ते बाद शैफाली कॉलेज आई तो उसे देखकर यूं लगा जैसे ना जाने कितने सालों से बीमार रही हो . मैं तो उसे देखकर स्तब्ध रह गया. परन्तु शैफाली उसी जोशो- खरोश से मिली जैसे हमेशा से मिलती थी. मैंने पूछा कि  क्या हुआ था तो हँसकर बोली ,"तुम्हारी शायरी सुनी नहीं थी ना इसलिए दिल बीमार हो गया था मगर अब आ गयी हूँ और तुम भी मौजूद हो तो देखना दो ही दिन में ठीक हो जायेगा". मुझे उसकी बातों ने आश्वस्त नहीं किया मगर मैं उसे परेशान भी नहीं करना चाहता था इसलिए चुप रहा.
तभी शैफाली बोली ,"अच्छा बताओ ,इतने दिन मेरे बिना कैसे बिताये ? क्या मेरी याद आई ?क्या मेरी याद में कोई नज़्म लिखी या सोचा अच्छा हुआ मैडम चली गयी चलो कुछ  दिन तो स्कूल की छुट्टी हुई". कितनी सहजता से शैफाली कहे जा रही थी और मैं उसे सिर्फ सुने जा रहा था . इस पल के लिए ही तो इतने दिन से तड़प रहा था और दिल चाह रहा था कि वो कहती रहे और मैं सुनता रहूँ बस और वक़्त यहीं रुक जाये. "अरे , कहाँ खो गए माधव, तुम्ही ही से तो बात कर रही हूँ"  जब शैफाली ने ये कहकर मुझे हिलाया तो अहसास हुआ कि मैं कहाँ हूँ. उस दिन मैंने ज्यादा बात नहीं की और कोशिश करता रहा की मेरी किसी बात से शैफाली को बुरा ना लगे.


अगले दिन मैं कुछ नोर्मल हुआ तो मैंने शैफाली के कहने पर उसे इतने दिन क्या -क्या किया सब बताया और जो -जो लिखा था सब उसे दिखाया. आज मेरा लिखा पढने के बाद शैफाली की आँखों में आँसू भर आये. एक उदासी उसके चेहरे पर छा गयी और वो बुत बनी बैठी रह गयी. उसे इस हाल में देखकर मैं परशान हो गया . ,मुझे लगा कि शायद कुछ गलत लिख दिया मैंने जो वो इतना दुखी हो गयी है. मैंने उसे कहा , " शैफाली तुम परेशान  मत होना अगर ख़राब लिखा है या  पसंद नहीं आया तो कह दो , तुम्हें पता है मुझे तुम्हारा कुछ भी कहना बुरा नहीं लगता ". इस पर वो बोली , " अरे माधव वो बात नहीं है . आज मैं कह सकती हूँ कि अब तुम्हारी लेखनी में वो जादू आ गया है  जिसकी मुझे तलाश थी. आज तुम्हारे लेखन में कहीं कोई कमी नहीं रही. सच यही तो चाहती थी मैं . अब तुम्हें आसमान छूने  से कोई नहीं रोक सकता". मेरे लिए तो ये सब अप्रत्याशित था.


शैफाली  ने पूछा , " अच्छा बताओ ये सब कैसे हुआ. १५ दिन में ही इतना सब कैसे बदल गया. कौन सा ऐसा चमत्कार हुआ कि तुम्हारे लेखन में इतनी उत्कृष्टता आ गयी "?


तब मैंने कहा ---------------


क्रमशः---------------

सोमवार, 6 सितंबर 2010

नई सुबह -------भाग ४

इतना कहकर शैफाली मुझे स्तब्ध खड़ा छोड़कर चली गयी और मैं काफी देर बुत -सा ठगा खड़ा रहा -----------
अब आगे -------------

वो तो दोस्तों ने जब मुझे काफी देर तक दूर खड़ा देखा तो आकर पूछा , "कौन थी वो जो उसके ख्यालों में पहली ही मुलाकात में डूब गया " क्यूँकि उन सब को पता था कि मेरी कोई गर्ल फ्रेंड नहीं है और किसी भी लड़की से आज तक मैंने कभी इतनी देर बात नही की  थी तो उनके लिए तो ये एक नयी बात ही थी.  उस सारा दिन मेरा  मन कॉलेज  के किसी भी काम में नहीं लगा . लेक्चरार ने क्या  पढाया, यार दोस्तों ने क्या कहा मुझे कुछ याद नहीं. मैं तो सारा दिन एक ही सोच में डूबा था कि वो थी कौन जिसने इतनी आत्मीयता से मुझे समझाया जैसे कोई अपना किसी अपने के लिए चिंतित होता है. घर आकर भी मैं इसी उधेड़बुन में लगा रहा और अगले दिन का इंतज़ार करने लगा. सारी रात एक बेचैनी सी छाई रही. रात कटने का नाम ही नहीं ले रही थी . यूँ लग रहा था जैसे आज की  रात मेरी ज़िन्दगी की सबसे लम्बी रात हो. 

अगले दिन वक़्त से काफी पहले ही मैं घर से कॉलेज के लिए निकल पड़ा और कॉलेज के गेट के पास एक पेड़ की ओट में इस तरह खड़ा हो गया कि  मैं तो सबको देख सकूँ मगर कोई मुझे ना देख सके. आज मुझे शिफाली का इंतज़ार था इसलिए हर आने वाले स्टुडेंट में मैं शैफाली को ढूँढ रहा था. खड़े खड़े काफी वक्त निकल गया यहाँ तक कि  मेरी एक क्लास भी मिस हो गयी .यार दोस्त मुझे ढूंढते फिर रहे थे और मैं किसी और को .

थक- हार कर जैसे ही जाने को हुआ  तभी देखा एक चमचमाती कार कॉलेज के गेट के पास अगर रुकी  और उसमे से शैफाली उतरी . उसे देखते ही मेरे तो जैसे पंखों को परवाज़ मिल गयी हो . मैं लगभग दौड़ता सा उसकी तरफ लपका और उसके सामने जाकर खड़ा हो गया मगर अब ख़ामोशी ने आकर मेरा रास्ता रोक लिया . जुबान तालू से चिपक गयी . समझ नहीं आ रहा था कि  कल से तो उससे मिलने को इतना बेताब था और आज जब वो सामने है तो कुछ समझ  नहीं आ रहा था कि  क्या कहूं . मुझे इस तरह चुप देख शेफाली ने ही 'हेलो' कहा और मेरा हाल पूछा तो मुझे भी शब्द मिल गए और मैं कह उठा ,
               बीमार कर के जो चले गए बज़्म से 
              आज पूछ रहे हैं बीमार का हाल कैसा है 
अब मैं अपने चिर -परिचित अंदाज़ में वापस आ गया था . इतना सुन शैफाली ने हँसते हुए कहा -----क्या हुआ है जो मुझ पर इतना संगीन इलज़ाम लगाया जा रहा है . तब मैंने कहा ," शैफाली जी, कल से जब से आपने जो बातें कहीं तभी से आपके ही बारे में सोच रहा हूँ कि  आपको इतना सूक्ष्म ज्ञान कैसे है. जो बात आज तक किसी ने नहीं कही वो आपने निसंकोच पहली ही बार में कह दी  तो मुझे लगता है कि  आप मेरी सबसे बड़ी शुभचिंतक हैं. आप मेरी मार्गदर्शिका बन जाइये और जब भी मैं कुछ भी नया लिखूँगा तो आपको जरूर दिखाऊँगा और आप उसमें जो भी कमी हो बताइयेगा ताकि मैं अपने स्तर में सुधार कर सकूँ ".


मेरे इतना कहते ही  शैफाली जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ी और मैं सकपका गया कि  कहीं मैंने अपने पागलपन में कुछ गलत तो नहीं कह दिया इतने में वो बोली ," अरे माधव जी, मैं कोई बहुत बड़ी चिन्तक या विश्लेषक या आलोचक नहीं हूँ मैंने तो सिर्फ साधारण रूप में ये बात कही थी क्योंकि कहीं  ना कहीं मुझे लगा कि  तुम में वो बात  है जो तुम्हें बुलंदी पर ले जा सकती है . बाकी मेरे बारे में कोई ग़लतफ़हमी मत पालो ".


इतना कहकर वो अपनी क्लास में चली गयी और एक बार मुझे सोचने के लिए अकेला छोड़कर. अब धीरे -धीरे मुझमे सच में बदलाव आने लगा था. जिस शायरी को मैंने कभी गंभीरता से नहीं लिया था उसे अब मैंने अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया था. मैं अपनी शायरी अब और डूबकर लिखने लगा था . जैसा कि  शैफाली ने कहा था . अब उसमे देश , समाज, व्यवहार सब शामिल होता मगर तब भी कभी शैफाली ने  मेरी तारीफ नहीं की बल्कि  हर रचना में कोई ना कोई कमी निकाल ही देती और मैं हर रचना को और स्तरीय बनाने  के लिए पुरजोर मेहनत  करने लगा यहाँ तक कि  अब
मुझमे अब वो पहले  जैसी चंचलता भी कम हो गयी थी और गंभीरता अपना राज़ करने लगी थी. 


मैं और शैफाली दोनों को एक- दूसरे की जब जरूरत होती मिलने लगे थे मगर सिर्फ लेखन से सम्बंधित बातें ही हमारे  तक सीमित थीं. मगर कॉलेज और यार दोस्तों में हमारे प्यार के चर्चे सिर उठाने लगे. सभी तरह तरह के कयास लगाने लगे और जब मुझे और शैफाली  को इस बात का पता चला तो दोनों बहुत जोर से हँसे . हम दोनों तो कभी ऐसा सोच भी नहीं सकते थे .हमें तो समझ ही नहीं आया कि  कैसे सबको सच बताएं क्योंकि कॉलेज में तो जरा किसी से हँस कर बोले नहीं कि ' मामला फिट है' वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है और यहाँ तो हम दोनों ही जब देखो तब एक दूसरे के साथ ज्यादातर वक्त बिताने लगे थे इसलिए किसी का मूँह कैसे बंद किया जा सकता था और अगर हम कुछ कहते भी तो किसी ने उस बात को मानना नहीं था जबकि हम दोनों के बीच ऐसा कुछ नहीं था मगर फिर भी कुछ कर नहीं पा रहे थे . इसी बीच शैफाली की क्लास से एक सेमिनार १५ दिनों के इए शिमला जा रहा था और वो भी वहाँ जा रही थी . ये एक साधारण बात थी तो मैंने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया मगर जब शैफाली चली गयी तो .................


क्रमशः --------------
 

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

नई सुबह ----------भाग ३

तब हर्षमोहन ने कहा ,"मुझे तुमसे जरूरी बात करनी है इसलिए अभी तुम नहीं जा सकते. बस शाम को आकर तुमसे बात करता हूँ . अभी आज एक जरूरी मीटिंग है वो निपटाकर आ जाऊं ".
माधव के पास रुकने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं था..................

अब आगे -----------

शाम को जब हर्षमोहन आये तो उन्होंने माधव को बुलाया और उससे कहना शुरू किया ,  "देखो माधव तुम जैसा होनहार इन्सान फिर इसी दलदल में जाए तो मुझ  पर धिक्कार है . मैं चाहता हूँ तुम अपना एक अलग आकाश बनाओ . ज़िन्दगी में ऊंचाइयों को छुओ . अपने आप को एक नयी पहचान दो".

ये सुनकर माधव बोला , " सर , मैं एक भिखारी हूँ  और मुझमे ऐसी कोई काबिलियत नहीं जो आप ऐसा कह रहे हैं . हम तो ज़मीन के लोग ज़मीन से ही जुड़े रहते हैं  और एक दिन इसी में मर खप जाते हैं . हमारे पास से तो काबिलियत भी दूर से ही नमस्कार करके निकल जाती है ".


ये सुनकर हर्षमोहन ने कहा , " माधव तुम अपने आप को चाहे जितना छुपा लो मगर मैं तुमको और तुम्हारे अन्दर छुपी काबिलियत को पहचान गया हूँ . मुझे पता चल गया है कि मेरे सामने कोई छोटा मोटा इंसान नहीं बल्कि एक गंभीर शख्सियत का मालिक बैठा है जो ऐसा छुपे रुस्तम है कि हर पल नकाब ओढ़े रहता है . मगर आज वक़्त आ गया है कि तुम ये नकाब उठा दो और दुनिया के आगे खुद को जाहिर कर दो . ना जाने कितने प्रशंसक तुम्हारे दीदार को तरस रहे हैं ".


ये सुनकर तो माधव सकपका गया .उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये इंसान है या जादूगर , जो उसके बारे में सब जान गया . 


खुद को संयत करते हुए हिम्मत जुटाकर माधव बोला ,"सर , मैं एक आम इन्सान हूँ . आपको जरूर कोई गलफहमी हो रही है . मुझमे ऐसी कोई बात नहीं है जिससे आप इतना प्रभावित हो रहे हैं ".


तब हर्षमोहन ने कहा , " माधव अब खुद को भ्रमजाल से बाहर निकालो और सत्य को स्वीकार करो . मुझे अब तुम्हारे बारे में सब पता है कि तुम कौन हो? जब तुम्हारा एक्सिडेंट हुआ था तब तुम्हारे झोले में जो कागज़ थे वो मैंने अब तक संभल कर रखे हुए हैं . उन्ही कागजों से मुझे तुम्हारे बारे में सब पता चल गया .  बाकी मैं खुद ऐसे काम में हूँ कि तुम्हारे बारे में इन सबके बाद सारी जानकारी निकलना कोई मुश्किल काम नहीं , इतना तो तुम समझते ही होंगे.अब खुद को छुपाने से कोई फायदा नहीं इसलिए अब साफ़ -साफ़ बात करो . "


ये सुनकर माधव बोला , " ठीक है सर , जब आपको सब पता चल ही गया है तो फिर अब कहिये , क्या चाहते हैं आप "?


ये सुनकर कुछ देर खामोश हो कर  कुछ सोचते हुए से हर्षमोहन बोले , " माधव , एक बात बताओ तुम इतनी ज़हीन शख्सियत के मालिक हो , फिर क्यूँ तुमने खुद को दुनिया से छुपा रखा है ? क्यूँ दुनिया के सामने नहीं आते ? तुम्हें देखने और तुम्हें जानने के लिए आज तुम्हारे पाठक कितना बेचैन हैं ये तुम सोच भी नहीं सकते . फिर ऐसा कौन सा कारण है जो तुम खुद को सारे ज़माने से छुपा कर रखते हो और एक गुमनामी की ज़िन्दगी जीते हो ?.


इतना कहकर हर्षमोहन खामोश हो गए और माधव की तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखने लगे . माधव बेचैनी से पहलू बदलने लगा मगर कुछ कह नहीं पा रहा था . उसके चेहरे पर छाई उदासी की महीन सी रेखा उसके दिल में उबलते ख्यालों को छुपा पाने में असमर्थ हो रही थी . ना तो वो कुछ कह पा रहा था और ना ही चुप रहकर हर्षमोहन की बात का मान घटाना  चाहता  था  क्योंकि उसके दिल में अब हर्षमोहन के लिए एक खास स्थान बन चुका था . 
बड़ी मुश्किल से अपने जज्बातों को काबू करके माधव ने बोलना शुरू किया .माधव  ने कहा , " सर आपकी जगह कोई और होता तो शायद मैं इस बात का कभी जवाब ना देता मगर आज आप से कहकर शायद मैं अपने दिल पर बरसों से रखा गम का भार कुछ हल्का कर सकूँ ".


कुछ देर रुककर माधव ने कहना शुरू किया , " सर , मैं पहले ऐसा नहीं था. मेरा भी एक हँसता मुस्कुराता परिवार था . मैं अपने माता पिता की इकलौती संतान था . बेहद लाड- प्यार से पला हुआ . हम अपनी ज़िन्दगी में बेहद खुश थे. जैसे एक मध्यमवर्गीय परिवार की ज़िन्दगी होती है वैसी ही  मेरी भी ज़िन्दगी थी . कोई गम नहीं था ज़िन्दगी में . हमेशा मस्ती करना और हंसमुख मिजाज़ इन्सान था मैं. कॉलेज के दिन याद आते हैं जब मैं उमंगों से भरा कॉलेज जाया करता था , आर्ट्स का स्टुडेंट था  क्योंकि मेरी साहित्य में रूचि थी और हिंदी मेरा प्रिय विषय . इसलिए  पढ़ाई की  कोई टेंशन तो थी नहीं और शुरू- शुरू  में वैसे भी मस्ती ही मस्ती होती है . मैं भी बेफिक्र सा मौज- मस्ती करता कॉलेज जाया करता था . 

मैं अपनी शायरी के लिए सारे कॉलेज में मशहूर था और किसी भी कार्यक्रम में जब तक मेरा नाम ना होता तो वो कार्यक्रम अधूरा ही माना जाता था . एक दिन जब मैं ऐसा ही एक कार्यक्रम पेश करके बाहर निकला तो एक आवाज़ ने मुझे चौंका दिया. शहद सी मीठी , कोयल सी कुहुकती  एक आवाज़ ने जब मेरा नाम लेकर आवाज़ दी तो मैं ठिठक कर रुक गया . पीछे मुड़कर देखा तो एक लड़की मुझे बुला रही है . मैंने सोचा शायद वो भी मेरी कोई फैन  है क्यूँकि कॉलेज की लड़कियों में मैं काफी मशहूर था . उसके पास गया तो पूछा कि क्या बात है तो उसने कहा , " मैं शैफाली हूँ  और इस कॉलेज में नयी -नयी आई हूँ इसलिए ज्यादा तो कुछ नहीं जानती मगर आपसे एक बात कहती हूँ कि आप जो शायरी करते हैं यूँ तो उसमे कोई कमी नहीं है मगर फिर भी इस तरफ कभी गंभीरता से ध्यान देना कि तुम्हारी शायरी सिर्फ रोमांटिक पहलू पर ही केन्द्रित है . अपनी शायरी में यदि तुम विविधता लाओ और साथ ही गहराई भी तो तुम एक उत्कृष्ट शायर बन सकते हो जिसका नाम सारे देश उज्जवल होगा क्योंकि तुम में वो बात तो है जो तुम्हारी शायरी को एक नयी  दिशा दे सकती है . तुम कोशिश करना और कभी सोचना इस तरफ और अगर बुरा लगे तो माफ़ी चाहती हूँ मगर मेरे ख्याल से अब तक तुम्हें सिर्फ तुम्हारे प्रशंसक ही मिले होंगे . कोई मेरे जैसा आलोचक  और सही मार्गदर्शन करने वाला नहीं मिला होगा . तुम अपनी प्रतिभा को सही दिशा दोगे तो मुझे बेहद ख़ुशी होगी  . इतना कहकर शैफाली मुझे स्तब्ध खड़ा छोड़कर चली गयी और मैं काफी देर बुत -सा ठगा खड़ा रहा ................


क्रमशः.................



बुधवार, 1 सितंबर 2010

नई सुबह ---------भाग २

तब माधव बोला ,"सर , मैं आपका आभारी हूँ कि आपने मुझ जैसे भिखारी का शहर के इतने बड़े अस्पताल में इलाज करवाया. मेरे जैसे इंसान तो ऐसा कभी सपने में भी नहीं सोच सकते. अब आप अपने बारे में कुछ बताइए ताकि मैं आपका परिचय जान सकूँ "
 अब आगे .........

ये सुनकर गाडी वाला मंद - मंद मुस्कान के साथ बोला , " माधव गलती मेरे ड्राईवर की थी और इस दुनिया में किसी को भी किसी की जान लेने का कोई हक़ नहीं है . जब नौकर गलती करे तो उसका जिम्मेदार उसका मालिक होता है . इसलिए अपने ड्राईवर की गलती के लिए , ये जो मैंने किया , उससे भी उस गलती की भरपाई नहीं हो सकती क्योंकि जो दुःख तकलीफ तुमने सही और तुम्हारा जो इतना लहू बहा क्या उसका इस संसार में कोई मोल है . हर इंसान को उतना ही दर्द होता है  जितना खुद को लगने पर होता है  . मैं तो अपने ड्राईवर के इस कृत्य पर शर्मिंदा हूँ और तुमसे इस भूल की क्षमा मांगने का भी अख्तियार नहीं रखता बल्कि ये चाहता हूँ कि तुम मुझे इसके लिए कोई सजा दो ".

बस इतना सुनते ही माधव तो जैसे  भाव-विभोर हो गया . उसके जैसे कवि ह्रदय वाला व्यक्ति कहाँ इतनी विनम्रता सहन कर पाता. माधव की आँखें छलक  आई थीं ये सोचकर कि आज के ज़माने में भी ऐसे इन्सान हैं. इसका मतलब इंसानियत अभी मरी नहीं शायद ऐसे इंसानों  के कारण ही पृथ्वी टिकी हुई है. 

फिर माधव  बोला , "सर ये आपकी महानता है वरना तो लोग टक्कर मार कर रोंदते हुए गाड़ी भगा कर ले जाते हैं . एक पल ठहरते भी नहीं ये जानने के लिए कि जिसे टक्कर मारी  है वो जिंदा भी बचा या मर गया और एक आप हैं जिनकी खुद की कोई गलती नहीं  बल्कि ड्राईवर  से गलती हुई उसके लिए भी मुझसे माफ़ी मांग रहे हैं ............आप जैसे लोग इस दुनिया में ऊँगली पर गिने जाने लायक ही होंगे. मैं आपकी विनम्रता , कृतज्ञता और महानता के आगे नतमस्तक हूँ. मुझे आपसे या आपके ड्राईवर से किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं है. आज मेरे सामने इस एक्सिडेंट के कारण ज़िन्दगी का एक नया पहलू सामने आया है." 

इतना कहकर माधव ने गाडी वाले से जाने की आज्ञा मांगी मगर गाडी वाला तो अब तक हाथ जोड़े और सिर झुकाए आँखों से अविरल धारा बहाता हुआ उसके आगे खड़ा था. ये देखकर तो माधव के होश उड़ गए. उसे समझ नहीं  आ रहा था कि वो किसी इन्सान को देख रहा है या साक्षात् भगवान उसके रूप में पृथ्वी पर अवतरित हो गए हैं क्योंकि आज के हालात में जब इन्सान ही इन्सान का सबसे बड़ा दुश्मन बना हुआ है उसमे किसी इन्सान को इस स्थिति में देखना तो ऐसा ही लगेगा कि जैसे या तो भगवान आ गए हैं या फिर वो कोई सपना ही देख रहा है , असल ज़िन्दगी में तो ऐसा संभव ही नहीं,फिर भी ये एक जीती -जागती हकीकत उसके सामने खडी थी . माधव की जुबान पर शब्द आकर रुके जा रहे थे और वाणी गदगद हो गयी थी . 

कुछ देर में खुद को संयत करके माधव गाड़ी वाले के पैरों पर गिर पड़ा और बोला , " सर आप मुझसे बड़े हैं मेरे पिता के समान हैं और इस तरह हाथ जोड़े खड़े हैं ----मैं शर्मिंदा हो रहा हूँ ,आप ऐसा मत करिए". 
जब गाड़ी वाले ने माधव को अपने पैरों पर गिरे देखा तो वो खुद को और लज्जित महसूस करने लगा . उसने माधव को उठाया और गले से लगा लिया . 
गाडी वाला बोला , " बेटा मैं इस ग्लानि के कारण खुद को मूँह दिखाने के काबिल नहीं और तुम मुझे और शर्मिंदा कर रहे हो ".

तब माधव बोला ,"सर, बस अब और नहीं . आपको जो कहना था और करना था आप कर चुके हैं . अगर आपको इतना ही ये बात परशान किये जा रही है तो सिर्फ इतना बता दीजिये कि आप हैं कौन? आपका परिचय ही आपका प्रायश्चित होगा".

तब गाड़ी वाला बोला , " मैं इस शहर में एक अख़बार जन -जागरण का मालिक हर्षवर्धन हूँ ".
इतना सुनते ही माधव तो अचम्भित हो गया . वो तो सोच भी नहीं सकता था कि इतना बड़ा इन्सान आज उसके सामने इस तरह खड़ा है. माधव तो खुद को कृतज्ञ समझने लगा. अब माधव ने हर्षमोहन  से जाने की इजाजत मांगी तो उन्होंने मना कर दिया और कहा कि तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगे और जब तक पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते तब तक आराम करोगे. माधव की तो जुबान ही तालू से चिपक गयी थी . वो चुप खड़ा रहा .तब हर्षमोहन माधव का हाथ पकड़कर उसे अपनी गाडी में बैठाकर घर ले गए. 
हर्षमोहन का घर  था या  एक राजमहल था . कितने नौकर- चाकर थे कोई गिनती नहीं . रात को भी घर ऐसा लगता जैसे दिन निकला हो. माधव खुद में सिमटता जा रहा था. उसने तो कभी सपने में भी ऐसा भव्य दृश्य नहीं देखा था. हर्षमोहन ने नौकरों से कहकर माधव के रहने और उसकी देखभाल का खास इंतजाम करवाया. भला ऐसे जन्नत जैसे माहौल में कोई कितने दिन बीमार रह सकता था सो ४-५ दिन में ही माधव भला -चंगा हो गया और फिर एक दिन उसने हर्षमोहन से जाने की इजाजत मांगी .

तब हर्षमोहन ने कहा ,"मुझे तुमसे जरूरी बात करनी है इसलिए अभी तुम नहीं जा सकते. बस शाम को आकर तुमसे बात करता हूँ . अभी आज एक जरूरी मीटिंग है वो निपटाकर आ जाऊं ". 
माधव के पास रुकने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं था..................

क्रमशः ......................

सोमवार, 30 अगस्त 2010

नई सुबह ---------भाग 1

माधव का नाम साहित्य जगत का एक जाना -पहचाना नाम था.उसकी कलम से निकला हर शब्द पढने वाले को सोचने पर मजबूर कर देता था ---------क्या श्रृंगार,क्या वियोग,क्या मानवता और क्या व्यंग्य ----------हर विधा का बेजोड़ लेखक था. हर शब्द में ऐसा जादू कि पढने वाले उसमे ही खो जाते थे शायद हर दिल की बात महसूस करने की कूवत थी उसमे तभी उसका हर शब्द हर शख्स को अपना सा लगता था. माधव जो लिखता उसके लिए एक पूजा थी और वो अपनी पूजा को बेचता नहीं था सिर्फ पूजा का प्रशाद ही सबमे बांटता था.अपनी कृतियों से प्राप्त पैसा वो अपने लिए प्रयोग नहीं करता था बल्कि सारा पैसा गरीब , नि:सहाय ,झुग्गी झोंपड़ी में रहने वालों पर खर्च कर देता था . उस कमाई का एक भी पैसा अपने पर खर्च ना करता. उसके चाहने वालों को पता भी ना था कि वो कहाँ रहता है और क्या करता है. एक गुमनाम सी ज़िन्दगी जीता था माधव.अपने जीवन का निर्वाह वो सिर्फ लालबत्ती पर प्राप्त पैसों से ही करता था . ऐसा था मस्त फक्कड़ माधव. जो रोज़ ज़िन्दगी के ना जाने कितने रंगों से सामना करता था और उसी को लफ़्ज़ो में उतार देता था. सारी दुनिया उससे मिलने को बेचैन रहती और शायद लोग उसके पास से गुजर भी जाते होंगे मगर फिर भी उसे पहचान ना पाने के कारण एक भिखारी समझ आगे बढ़ जाते होंगे. उसके संपादक उससे कितनी ही मिन्नतें करते मगर वो टस से मस ना होता. ना जाने क्यों वो गुमनामी के अंधेरों में ही खोया रहना चाहता था. ना  जाने कौन सी खलिश थी जो उसे ऐसा जीवन जीने के लिए मजबूर कर रही थी.

आज के वक़्त में भी ऐसा इन्सान होना संसार के आठवें आश्चर्य से कम नहीं. आज के वक्त में ऐसा कौन इंसान होगा जो दौलत और शोहरत ना चाहता हो या ऐशोआराम की ज़िन्दगी जीना ना चाहता हो मगर माधव की सोच आज के ज़माने से बिलकुल हटकर थी. बेशक जीता आज के वक्त में था और लिखता भी आज के दौर का ही था तभी तो हर  दिल की धड़कन बन  गया था मगर फिर भी अपने उसूलों और आदर्शों से कभी समझौता नहीं करता था.

माधव के आस पास के भिखारी जो लालबत्ती  पर होते थे कोई भी उसके दिल की बात नहीं जानता था. इतना तो था कि वो कभी कभी कुछ दार्शनिक बातें कहता तो अन्य लोगो के सिर के ऊपर  से गुजर जाती और इसे ही पागल समझने लगते मगर उन में से कोई भी नहीं सोच सकता था कि उनके बीच गुदड़ी का लाल छुपा है .

एक दिन अचानक जब माधव लाल बत्ती पर खड़ा भीख मांग रहा था तभी पीछे से आती एक तेज़ रफ़्तार कार का बैलेंस बिगड़ जाने के कारण फुटपाथ  पर खड़े माधव को उसने टक्कर मार दी और माधव अपने झोले के साथ लहूलुहान हो गया और उसके झोले में पड़े पैसों के साथ उसके कागज़ भी हवा में उड़कर तपती सड़क पर उसके ही लहू में भीग कर इधर -उधर बिखर गए जैसे किसी के सपनो को आँधी अपने साथ उडा ले गयी हो और सब तितर -बितर कर दिया हो.आप -पास लोगों  का हुजूम इकठ्ठा हो गया और  वो सब गाड़ी वाले के पीछे पड़ गए उसे पुलिस में ले जाने की धमकी देने लगे .कोई कह रहा था "गरीब आदमी क्या इन्सान नहीं होता जो इन गाड़ी वालो को दिखाई नहीं देता , गरीब का खून क्या खून नहीं होता या उसकी जान मुफ्त की होती है जो इतनी बेरहमी से बेचारे को मार दिया". ऐसे इंसानों को तो पकड़ कर पुलिस में दे देना चाहिए मगर इतने में जो गाडी में बैठा था वो उतर कर आया वो शहर का एक जाना माना शख्स था और गाडी उसका ड्राईवर चला रहा था . उसने कहा ,"भाइयो मेरी मदद करो और इसे जल्दी से गाड़ी में डालो मैं इसका इलाज करवाता हूँ . इतने में भीड़ में से कोई बोला ये सब बचने के उपाय हैं कोई इलाज नहीं करवाएगा हम तो अभी पुलिस का इंतज़ार करेंगे मगर गाडी वाला बोला अगर पुलिस का इंतज़ार करोगे तो उसके इलाज में देरी होने की वजह से वो मर भी सकता है देखो उसका कितना खून बह चुका है .एक बार इसे अस्पताल में दाखिल करवा दो फिर चाहे तो पुलिस में दे देना .कम से कम इसकी जान तो बच जाएगी. उसकी बात में दम देखकर लोगो न माधव और उसके झोले और कागजों को उसके साथ  ही गाड़ी में रख दिया  .

गाडी वाला माधव को अस्पताल ले गया और उसका इलाज शहर के सबसे बड़े अस्पताल में करवाया. पुलिस से निपटना वो अच्छी तरह जानता था और सबसे बड़ी बात कि उसने खुद उसका इलाज करवाया और सारा खर्चा उठाया तो पुलिस तो खुद इन सबसे हाथ झाडती फिरती है और वैसे भी उनका पेट भर ही चुका था गाडी वाला, तो वो क्यूँ कोई एक्शन लेती. दो ही दिन में माधव चलने -फिरने लायक हो गया तब एक दिन वो गाडी वाला उससे मिलने आया . माधव का हाल पूछा तो माधव ने अपने दार्शनिक अंदाज़ में कहा ,"बेरहम ज़िन्दगी एक बार फिर जीत गयी , मौत को भी धोखा दे आई , ना जाने अभी और कौन सा करम बाकी है ".ये सुनकर गाडी वाले के चहेरे पर लाचारगी का एक भाव आकर चला गया मगर माधव को महसूस भी नहीं हुआ.अब माधव को ख्याल आया कि उसने तो उस आदमी से उसका परिचय ही नहीं पुछा . तब माधव बोला ,"सर , मैं आपका आभारी हूँ कि आपने मुझ जैसे भिखारी का शहर के इतने बड़े अस्पताल में इलाज करवाया. मेरे जैसे इंसान तो ऐसा कभी सपने में भी नहीं सोच सकते. अब आप अपने बारे में कुछ बताइए ताकि मैं आपका परिचय जान सकूँ ".....................
क्रमशः ................

सोमवार, 23 अगस्त 2010

उसका पता मिलता नहीं

अपना पता भूलती नहीं 
उसका पता मिलता नहीं 
नगरी नगरी , द्वारे द्वारे 
खोजती फिरूँ प्यारे को 
पर उसका ठिकाना मिलता नहीं 

कमली बन कर डोलूँ 
मन के वृन्दावन में खोजूँ
सांझ सकारे प्रीतम प्यारे 
दर्शन को तरसे नैना हमारे
मैं खोजत खोजत हारी 
मुझे मिले ना कृष्ण मुरारी
मुझे मुझसे मिला जाओ 
इक बार दरस दिखा जाओ
अपना मुझे बना जाओ
प्यारे अपना पता बता जाओ
मुझे मेरा "मैं " भुला जाओ
इक होने का आनंद चखा जाओ
प्रेमानंद में डूबा जाओ
श्याम अपनी श्यामा बना जाओ
ह्रदय की तडपन मिटा जाओ
जन्मो की प्यास बुझा जाओ
सांवरिया इक बार तो आ जाओ
सांवरिया इक बार तो आ जाओ

रविवार, 8 अगस्त 2010

"मैं "का कोई अस्तित्व नहीं

मैं क्या हूँ ?
कुछ भी तो नहीं 
ब्रह्मांड में घूमते
एक कण के सिवा 
कुछ भी तो नहीं 
अकेले किसी 
कण की
सार्थकता नहीं
जब तक अणु 
परमाणु ना बने
जब तक उसके 
जीवन का कोई
प्रयोजन ना हो 
उद्देश्यहीन सफ़र
को मंजिल
नहीं मिलती 
हर डूबती लहर को 
साहिल नहीं मिलता 
और बिना बाती के 
जिस तरह 
दीया नहीं जलता
उसी तरह
"मैं "का कोई 
अस्तित्व नहीं
तब तक ......
जब तक
अस्तित्व बोध 
नहीं  होता  

बुधवार, 4 अगस्त 2010

श्याम बिन ज़िन्दगी गुजरती नहीं है

श्याम बिन ज़िन्दगी गुजरती नहीं है
राधे नाम बिन ये सँवरती नहीं है 
श्याम बिन .....................................

१) पीले पड़ गए हैं ये शाखों के पत्ते -२-
    उजड़ गया है ये मधुबन सारा -२-
    गोविन्द बिन कुछ भी सुहाता नहीं है 
श्याम बिन ..........................................

२) पनघट भी सूने गलियाँ भी सूनी -२-
    वो अमुआ के झूले वो मौसम भी भूले -२-
    तेरे बिन सांवरिया हम मरना भी भूले 
श्याम बिन ............................................

३) वो वंशी की ताने वो यमुना की बाहें -२-
    वो कदम्ब की छाहें वो टेढ़ी निगाहें -२-
    हर इक याद तेरी भुलाती नहीं है 
श्याम बिन .............................................

बुधवार, 14 जुलाई 2010

ए री मोहे मिल गये नन्द किशोर

ए री मोहे मिल गये नन्द किशोर
 बाँह पकड़त हैं मटकी फोड़त हैं
करत हैं कितनी किलोल 
ए री मोहे ......................................

कभी छुपत हैं कभी दिखत हैं
कभी रूठत हैं कभी मानत हैं
जिया में उठत हिलोर 
ए री मोहे ........................................

रास रचावत हैं सबहों नचावत हैं
वेणु मधुर- मधुर ऐसी बजावत हैं
बाँध कर प्रेम की डोर 
ए री मोहे .........................................

 

शनिवार, 10 जुलाई 2010

विरह- वियोग

शरीर रुपी पिंजरे में मेरा आत्मा रुपी पंछी फ़डफ़डा रहा है श्याम .............संसार के बन्धनों में जकड़ी हुई हूँ .........हरी मिलन को तरस रही हूँ .............जल बिन मीन सी तड़प रही हूँ..............पाप गठरी उठाये भटक रही हूँ ........जन्मों के फेरे में पड़ी हुई हूँ.......... फिर भी कान्हा......... तेरे वियोग में ह्रदय फटता नहीं है ..........पत्थर ह्रदय है ये प्रेम की बूँद पड़ी ही नहीं इस पर, वरना पिघल ना गया होता प्रेम की एक बूँद से .............सुना है प्रेम तो पत्थर को भी पिघला देता है और मेरा ये कठोर ह्रदय तेरे प्रेम वियोग से फटता ही नहीं .............ज्ञान की आँख मेरे पास नहीं और कोई उपाय आता नहीं .............सोचती थी प्रेम होगा मगर नहीं है अगर होता तो तू मुझसे दूर कब होता ............मुलाकात ना हो जाती ...........अब कौन जतन  करूँ सांवरिया ..........सिर्फ नैनन का नीर ही मेरी थाती है बस वो ही अर्पण कर सकती हूँ मगर ना मालूम कितने जन्म लगेंगे तुझसे मिलने को.........तुझे पाने को..................तुझे तो अपना बना लिया मगर तेरी कब बनूँगी तू मुझे कब अपना बनाएगा ,किस जन्म में ये विरह वियोग मिटाएगा कान्हा ............इसी आस पर दिन गुजार रही हूँ ..............क्यूँ इस देह के पिंजरे में फँसा रखा है कान्हा .........अब तो अपने आनंदालय  की एक बूँद पिला दे श्याम .............बस एक बार अपना बना ले...........अब विरह वियोग सहा नहीं जाता.........तुझ बिन रहा नहीं जाता..........श्याम ,अब तो बस अपनी गोपी बना ले एक बार .............जन्मों की प्यास मिटा जा श्याम बस एक बार अपना बना जा श्याम ..........बस एक बार.

रविवार, 4 जुलाई 2010

काहे भूल गए सांवरिया........

प्रियतम 
प्राण प्यारे 
नैना जोहते
बाट तिहारी 
तुझ बिन तडपत
रैन हमारी 
पी -पी पुकारत
सांझ सकारे 
तुझको खोजत
नैन हमारे 
आस की आस 
भी छूटन लागी 
प्रीत की प्यास 
भी टूटन लागी 
तुझ बिन प्यारे
बरसत हैं 
सावन भादों हमारे
कोऊ ना सन्देश 
पाऊं तिहारा
पाती भी 
सूनी आ जाती
बिन संदेस के 
संदेस दे जाती
भूल गए 
प्राणाधार हमारे
प्रेम के वो 
हिंडोले भूले
कर आलिंगन के
रस्ते भूले
तिरछी कमान के
तीर भी टूटे
अधरों के अवलंबन 
भी छूटे 
रूठ गए 
सांवरिया मोसे 
भूल गए वो
प्रेम बिछोने
खोजत- खोजत
मैं तो हारी
नैना भी
पथरा गए हैं
प्रीतम ,आने की
राह तकत हैं 
क्यूँ भूल गए सांवरिया  
सूनी पड़ी प्रीत अटरिया
काहे भूल गए सांवरिया........