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शनिवार, 18 जून 2011

मन भूला भूला फिरता है

ना जाने कैसा सवेरा है
किसने घेरा है
कौन पथिक है
कहाँ जाना है
क्या करना है
आगत विगत में उलझा है
मोह निशा में भटका है
मन ने मचाया हल्ला है
दिखता ना कोई अपना है
कभी लगता जहाँ अपना है
कभी लगता सब सपना है
कैसी अबूझ पहेली है
जितनी सुलझाओ उलझी है
जीवन नैया डोली है
बीच भंवर में अटकी है
मल्लाह ना कोई मिलता है
पार ना कोई दीखता है
ये कैसा जीवन खेला है
जहाँ कोई ना तेरा मेरा है
जानता सब कुछ है फिर भी
पथिक भटकता फिरता है
राह विषम ये दिखती है
मंजिल भी तो नहीं मिलती है
किस आस के सहारे बढ़ता जाये
किसके सहारे जीता जाये
कोई ना संबल दिखता है
मन भूला भूला फिरता है

21 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

मन की कश्मकश को बहुत प्रवाह मयी शब्दों में पिरोया है ..सुन्दर अभिव्यक्ति

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति|| धन्यवाद|

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

जीव जंजालो पड़ गया नौ मन उलझा सूत
या सुलझे बाईक और या सुलझे अवधूत

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

मन को ठौर दिलाओ यूं ना भटकाओ..सुन्दर रचना

SAJAN.AAWARA ने कहा…

MAM BAHUT ACHI RACHNA HAI YE. . . VERY NICE. . .
JAI HIND JAI BHARAT

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....


कुछ चुने हुए खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .

बेनामी ने कहा…

वाह ... बहुत ही अच्‍छा लिखा है ..बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

ye uljha man....man ke dwaar pe dastak deti kavita....or uske bhav
bahut khub....

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

भरी रात में टिमटिम कर भी राह दिखाते तारे हैं।

Vijuy Ronjan ने कहा…

jeevan ek bhool bhulaiyaa hai,
yahan sabse bara rupaiyaa hai.

Vandana ji...jeevan ki aboojh paheli par aapki rachna adbhut hai.

Udan Tashtari ने कहा…

बेहतरीन...पसंद आई रचना.

Manoranjan Manu Shrivastav ने कहा…

जाने क्या चाहे मन बावरा...........
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मुझे जूता लेना है !

सुज्ञ ने कहा…

मन-दुविधा की सहज सरल शब्दों में अभिव्यक्ति।

BrijmohanShrivastava ने कहा…

मन भटका है उलझन में उलझा है ।कोई अपना नहीं है संसार सपना है । नाव भंवर में फसी है मल्लाह है नहीं तूफान के आने का अंदेशा है। ""बाढ की सम्भावनायें सामने है और नदियों के किनारे घर बने है।"" मंजिल मिलती नहीं है जिसमें भ्रान्तियों ने और भ्रमित कर दिया है । कोई सम्बल भी नहीं है। बहुत अच्छी कविता है। सत्य है । मन भूला हुआ है और कुछ लोगों ने और भुला दिया है। ""वैसे ही चलना दूभर था अंधियारे में तुमने और घुमाव ला दिये गलियारे मे।"" सांसारिक और आध्यात्मिक रचना ।

Vaanbhatt ने कहा…

सिर्फ संबल ही तो खोजना है...फिर मंजिल किसे खोजनी...भटकाव से मुक्ति...

M VERMA ने कहा…

उहापोह और कश्मकश

Bharat Bhushan ने कहा…

मन पर ऐसी अवस्था कभी आती है. आपने उसे दार्शनिक भावों में सुंदरता से पिरो कर लिखा है.

ZEAL ने कहा…

मन तो अति-चंचल होता ही है । यूँ ही भूला भूला फिरता है।

Prity ने कहा…

कैसी अबूझ पहेली है
जितनी सुलझाओ उलझी है ... वंदना जी बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ...

kshama ने कहा…

Sach! Ye man bhee kya cheez banayee hai qudtartne! Ek bhakaav hee bhatkaav hai!
Behad sundar rachana!

Randhir Singh Suman ने कहा…

nice